हम सभी ऐसी कईजगहों पे रहे हैं जहां के कमरों ने तो कई बार खिड़की ही न होने से भी निराश किया है। और अगर है भी तो उस से किसी फैक्ट्री की दीवार या खाली पड़े प्लाट में अटी पड़ी गन्दगी या किसी के आहते के अलावा केवल गगनचुम्बी इमारतें दिखती हैं। आप मेरे साथ स्वीकार करेंगे की अगर इन सब से थोड़ा ज़्यादा प्रेरणादायी कुछ दिख जाता तो केवल उतने भर से ही ऐसा लगता की जीवनशैली उन्नत हो गई है।
कुछ घरों के कमरे छोटी से अटारी जैसे होते हैं जहां से दूसरों के मकानों की छतों के सिवा और कुछ नहीं दिखता। बीते मौसम की बारिश और धूल से सनी टाइल्स और कालीखपुति चिमनियों की एक लम्बी श्रंखला। कभी कोई चितकबरी बिल्ली निकल आती तो माहौल की बोरियत भांग होती। सफ़ेद बिल्ली अब नही ही दिखती है।
जो घर रैलवेस्टेशन के पास होते हैं वहां भले ही खिड़की से सूखने के लिए डाले गए खूब सारे कपड़ों के कारण रेल की पटरियां दिखाई नहीं देती पर दिन में कई बार ट्रेन की सीटी की आवाज़ ज़रूर सुनाई पड़ती है। जब भी कोई ट्रेन घड़घड़ाते हुए गुजरती है तो कमरा इस तरह कांपने लगता है जैसे कोई भूचाल आ गया हो। ऐसे कमरों की दीवारों पे कोई तस्वीर टांगना लगभग नामुमकिन ही रहता है। क्यूंकि भड़भड़ाहट के कारण वह एकाध दिन में ही तस्वीर नीच गिर जाती है।
पर ट्रेन की खिड़कियों का कोई मुकाबला नही। खासतौर पर भारत जैसे देश में, जहां बाहर देखने वाला नज़ारा लगातार बदलता है।
तो एक अच्छी-सी खिड़की वाला घर कई बार एक सपना सा रहता है। इसे पाने के लिए किस्मत कई बार एक लम्बा इंतज़ार करा देती है।फिर कई बार किस्मत मेहरबान होती है पर कुछ ऐसे की वह खूबसूरत नज़ारे वाला बगीचा कमरे की खिड़कियों से नहीं बल्कि उसके बाथरूम की खिड़कियों से दिखता है। अब बाथरूम में खड़े होकर किसी खूबसूरत नज़ारे को एक सीमा तक ही निहारा जा सकता है।
फिर आखिरकार सब्र का फल मीठा तो होता ही है। एक ऐसा कमरा मिल ही जाता है जिसकी खिड़की से नीला आकाश, दूर तक फैले पहाड़, नीचे वादियों में बहती नदियां नज़र आती है। ऐसी खिड़की पर बैठ, चाय/कॉफ़ी कि चुस्कियों के साथ पुराने गाने सुने जा सकते हैं। और साथ ही गाये भी जा सकते हैं। अपने बिस्तर पर लेते हुए तारों से लकीरें बनाना या अपनी टेबल पर बैठकर पेड़ों की झुरमुठ से झांकते चाँद को निहारना ...... मीठी सोहबत है। क्यों मानते हैं ना ?
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