पिता



अपने समाज में पिता की छवि गंभीर, आवेश में, और निरपेक्ष व्यक्ति की बानी हुई है। परिवार का केंद्र बिंदु होते हुए भी रिश्तों से एक ख़ास दूरी बनाये रखना होता है इन्हे। ममता, हसी, आंसू, दुलार, बेचैनी, तड़प ये तमाम भाव माँ के खाते में दाल दिए गए हैं। मनो पिता में ये दिख जाने पर उनके पितृत्व को ठेस पहिंच जाएगी। लम्बे समय से यही देख कर हम बड़े हुए हैं और यही दोहरते भी रहते हैं। पारम्परिक छवियों के प्रभाव में कैद हमारा दिलो-दिमाग बंधी-बंधाई लकीरों के पार जाने से डरता है। शायद इसलिए जब हम किसी पिता को वो अनदेखी लकीर मिटाते देखते हैं तो अनजाने ही उन्हें 'बड़ा' मान बैठते हैं। वरना ऐसे देखा जाए तो बच्चे के जन्मा से उसके बड़े होने तक माँ जितनी चिंता, सार-संभाल कोई और नहीं कर सकता। फिर भी हम उसे 'अच्छी माँ' कहने के लिए बच्चे की पूरी जिंदगी पलटकर देखते हैं।


कितनी अजीब बात है ना, पिता बच्चे के जन्मा का कारण है, लेकिन उसे आकार देने से उसके पैरों को आधार देने तक हर पल 'माँ' उसके साथ होती है। घर और बाहर की व्यस्तता से, बच्चे और घर के प्रति उसी जिम्मेदारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वो सबके लिए वक़्त निकाल लेती है। दुनियां के किसी भी कोने में दिन के 24 घंटों में एक माँ जितनी जिमीदारियाँ निभाती है, पिता उसका आधा भी नहीं निभा पाता। फिर भी छुटपुट कामों में दिया गया उसका सहयोग उसे 'अच्छे पितृत्व' का सम्मान दिला देता है। मगर 'माँ' को तो किसी सम्मान की ज़रुरत ही नहीं। 

मुझे तो लगता है की माँ शब्द से पहले कोई विशेषण लगाना ही नहीं चाहिए। वो किराने की दूकान में अंगुलियों पर बजट का हिसाब बिठा रही हो या बीच बाजार में बच्चे की बचकानी -सी ज़िद पूरी करने के लिए चलते-चलते गीत गुनगुना रही हो या अपने आँचल में उसके आंसू समेत उसकी हथेली टॉफियों से बाहर रही हो, मेरे ख्याल में माँ हर हालत में केवल माँ होती है। जिसका मन परिवार और बच्चे के आसपास सिमटा रहता है हमेशा। वो अपनी ज़िन्दगी इन्हे संवारने में बिता देती है बिना चेहरे पे कोई शिकन लाये या तारीफ़ की आस किये। उस 'माँ' को हम कोई भी खिताब दे दें, हर खिताब उसके त्याग के आगे छोटा ही साबित होगा। 

मैं ये नहीं कहती की बच्चे की परवरिश में पिता की भूमिका कमतर है, लेकिन माँ और पिता में वही अंतर है, जो देहलीज़ के बाहर खड़े गुलमोहर और आँगन के भीतर लगी 'तुलसी' में होता है। और अफ़सोस के साथ कहना पद रहा है की यह अंतर हमारे समाज ने खाद किया है। मेरे पिता जी भी सभी के पापा जैसे हैं समय, संस्कृत, संस्कार और समाज से पोषित, लेकिन कुछ कुछ नए ज़माने के ख्यालों से प्रभावित। वो मुझे उन चीज़ों के बारे में सिखाते हैं जो वे जानते हैं या जानना चाहते हैं, जिन्हे वो पसंद करते हैं और उम्मीद करते की मैं भी उन चीज़ों को पसंद करूं और उन सब पे से ध्यान हटा लून जो उन्हें नापसंद है।

मेरा विश्वास, मेरे सपने, मेरा वजूद, पिता की सोंच के तले आकार लेती रही है। मेरी सीढ़ी-साधी गाँव की सौंधी मिटटी से गुंथी और नवाचार से सुसज्जित मेरी माँ का इस व्यक्तित्व निर्माण में पूरा पूरा योगदान है। क्यूंकि सीख की नीव तो माँ की तैयार की हुई है। मेरे पिताजी कई बार इस वक़्त के चलन को तोड़ते। कभी कभी मुझे लगता है की जैसे वो मेरे नज़दीक आना चाहते हैं (और मेरे आसपास रहकर वो ऐसा कर भी रहे थे)

फिर भी ये नज़दीकी वैसी नहीं है, जैसी 'मुझमे और माँ' में है। मुझे याद ही नहीं पिताजी ने मझे पिछली बार हुमककर गले कब लगाया था। या सर पर हाथ फेरकर प्यार किया हो। उनकी दूर दूर रहकर निभायी जाने वाली नज़दीकी कई बार मुझे परेशन करती। मैं चाहती हूँ की वो खुलकर मुझसे (और किसी से भी) बात करें। अपनी चिंता, अपना काम, अपनी जिंदगी बांटना नहीं चाहते हैं। इसमें उनकी गलती नहीं है, समाज के मापदंड ही कुछ ऐसे रहे हैं। स्त्री और पुरुष के बीच केवल कर्म ही नहीं, भावनाएं और खेल खिलौने भी बनते हुए थे।

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