"प्लास्टिक की बोतल के ढक्कन जैसी आंखें, पॉलिथीन जैसी त्वचा या काई के रंग - सी हरी आंखें .. " क्या आने वाले दिनों में हम खूबसूरती की उपमा यूँ देना चाहेंगे? बिजली के खंबों पर लगे बल्बों पर भिनभिनाते कीड़ों से किसी भी कहानी या कविता को कैसे सजायेंगे?
पर हालात तो कुछ ऐसे ही दिख रहे हैं जमाने के। नदियां - उन में कूड़ा, पेड़ों की गिनती लगातार काम हो रही है, चिड़िया जो कुछ बची हैं वे इमारतों के रोशदानों में घोसला बनाने को मजबूर, भूख से बिलबिलाती गायें खदेड़ दी जाती हैं। गमलों में बगीचे और कई जगह तो यह भी इतिहास!
प्रकृति रहेगी तो कुछ कहने को भी रहेगा। जो भीतर कहीं कुछ एहसास जगा सके, मन को सुकून की छांव में ले जा सके। जो अगर एहसास ही न जागे तो सृजन होगा कैसे?
"उसके छोटे से घर से घाट महज दस कदम दूर था। घाट पर बने शिवालय के बगीचे से सुबह पांच बजे पारिजात लेकर शिव का श्रृंगार करना उसकी आदत थी।" इन शब्दों से ही आँखों के सामने एक कोमल - भोला चित्र खिंच गया। चलिए , कहानियों के लिए ही सही बचा लीजिए खेत - खलिहानों, पेड़ - पक्षियों को, जो ये ना हुए तो खूबसूरती का क्या होगा!
साहित्य का सुकून सभ्यता का सबसे बड़ा सुकून है। और हमारी 'उर्वी' पर ये प्रकृति की गोद में ही पली - बड़ी है। इस छांव का बचाया जाना बेहद ज़रूरी है।
0 Comments