मौन, वहाँ जहाँ शब्द ना हों। यह ज़्यादा प्रभावी अवस्था है। यूँ शब्द भी यहीं से निकलते हैं। साधारण प्रकृति के लोग तो मौन को सहन भी नहीं कर पाते।
शब्द अभिव्यक्ति है और मौन अभिव्यक्ति का रास्ता। यह एक उपकरण भी है। इसका अर्थ बहुत ही व्यापक हो जाता है। जैसे शब्दों को साधना पड़ता है वैसे ही मौन को भी।
बोलते समय हमारा ध्यान ज़रा सिमटा हुआ रहता है। पर मौन होते ही हर चीज़, हर हरकत जैसे स्पष्ट हो जाती है। विचारों के विषय, उनकी दिशा और गति, स्पष्ट नज़र आने लगते हैं। भाव, अभाव और स्वभाव की गहनता समझ आने लगते हैं। सूक्ष्म वातावरण भी साफ़ दिखता है, जो बोलते समय ओझल रहता है। बोलते वक़्त भीतर का आभास काम ही रह पाता है। पर मौन में भीतर - बाहर दोनों बेहद स्पष्ट रहते हैं।
लोग शब्द को ही पकड़ते हैं और उनसे उलझते रहते हैं। वे ना शब्दों के भीतर देखते हैं, ना उनके आस - पास। शब्दों के बीच हम जो जगह रखते हैं वह मौन के लिए ही तो है। शब्द में स्पंदन है, गति है, लय है, संगीत है। यह मौन के ही आवरण हैं। सोंचने के लिए गहरा उतरना हो तो मौन मुख्य द्वार होता है। पहला दरवाज़ा। वहां से गुजर के हम अपने पास आते हैं।
कई बार यूँ ही किसी के पास बिना बोले बैठकर भी संतुष्टि का अनुभव होता है। नन्हे शिशुओं को ही ले लीजिये, उनके पास शब्द कहाँ होते हैं?
बोलना और चिंतन साथ - साथ नहीं चलते। जहाँ एक है वहां दूसरा नहीं रहता।
कहते भी हैं किसी विवाद के समय, एक मौन हो जाए तो स्थिती बिगड़ने से बच जाती है। मौन विचारों की गैर ज़रूरी हलचल को कम कर देता है। स्थिरता आती है, ठहराव आता है। प्रतिक्रियाएँ (reactions), जो बोलने से पहले ही शुरू हो जाती है और सुनने वाले के अंदर तक चलती रहती हैं। प्रतिक्रियाओं की प्रति ध्वनि (echo) तो कई बार लम्बे समय तक बनी रहती है। मौन में सब शांत।
हम जानते हैं की हमारे शरीर की भी अपनी ही एक भाषा है। और गज़ब की बात तो यह है की ये झूठ भी नहीं बोलती। पर हम इसकी सुनते ही कब हैं? बस दिमाग के इशारे पर चलते हैं। और कई बार पछताते भी हैं, पर सुनते नहीं। या ... कहीं हम जानते ही नहीं ऐसी कोई भाषा भी होती है। जैसे - जैसे मौन का अभ्यास बढ़ता है, वैसे - वैसे इस भाषा पे पकड़ बढ़ती है। हम खुद को विस्तार से समझने लगते हैं। खुद से बात करने लगते हैं।
जीवन है तो आप बिना बोले रह भी नहीं सकते पर मौन का अनुभव करने योग्य है।
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