ख्याल गलियों में भटक रहे हैं। चलिए साथ चलते हैं। मोड़ आएंगे, ख्याल लाएंगे, पर साथ ही रहिएगा।
बाहर आने की हड़बड़ाहट है। Lockdown उकताहट दे रहा है। आखिर कब आएंगे बाहर जाने के दिन?
लीजिये, ख्याल का पहला मोड़ आया ...
आज घर की हद में बंद हैं, तो ऑफिस जाने के लिए मेट्रो पकड़ना, किसी दिलचस्प शख्स में कुछ देर के लिए नज़रों का ठहरना, फिर किसी तरह Login टाइम से ठीक एक मिनट पहले आकर thumb impression लगाना (जो कई बार क्रीम ज़्यादा लगी होने की वजह से मैच नहीं होता था), दोस्तों के साथ बाजु वाली चाय की टपरी पर तालियां मारकर हसना याद आ रहा है। शॉपिंग करना, सहेलियों के साथ गोलगप्पे की शामें। हैंगऑउट, पार्टियों का दौर। बेफिक्री। आपको क्या लगता है ये जूनून -ए -इश्क़ के अंदाज़, सब छूट जायेंगे? नहीं छूटेंगे जनाब। बस, ज़रा सा और साबरा रखिये।
अगला मोड़ ...
आइये, आज उस दौर को याद करें, जब गर्मियों की रातों में, तारों की छइयां में सोते थे, सुराहियों का ठंडा और मीठा पानी पीते थे। आमों से भरी बाल्टियां हमारे लिए होती थी। नानी की कहानियां सुनकर सोते थे। हर साल हम गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार करते, नानी घर के लाढ़ - प्यार के लिए।
बहरहाल अभी की 1-2 पीडियों को यह बात किसी कविता की पंक्तियों जैसी लगेंगी क्योंकि उनके लिए गर्मी की छुट्टियां या तो किसी ख़ास क्लास का नाम रही हैं या कही घूमने जाने का।
एक और मोड़ ...
पिछले कई दशकों से हमने मंजिलों पर निशाना लगाना अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया है। और उसकी तरफ जितना तेज़ हो सके, भागते हैं। मंजिल फहत करने की जेद्दोजेहद में उम्र खो गई, अपने छूट गए, ना कोई याद साथ ही रही। पहुंचे ज़रूर मंजिल पर, पर अकेले। लगा की मेले में हैं। शोर है। घर मुसाफिरखाना। अपनों के स्नेह - स्पर्श से दूरी कर ली, उसकी जगह सोशल मिडिया पर तस्वीरों की अदला - बदली ने ले ली। बेचैनी को बेफिक्री समझ बैठे हम। क्या लगता है? बेपरवाह या लापरवाह हुए हैं हम?
अब इस वाले मोड़ पर … ज़रा रुक जाइये ...
ज़रा ठहर जाइये, संभलकर, आगे कोरोना है। घर में आ जाइये। वही अपना हर, जिसे हमने सब कुछ जोड़कर बड़े प्यार से बनाया है। सुख और सुकून के कुछ पल यहीं मिलेंगे आपको, उन्हें जीकर देखिये। इस वैश्विक आपदा ने हमें यह अवसर दिया है पर हम अपनी तीव्र गति पर इतराना छोड़, जरा थम जाना भी सीखें, सर उठाकर आस-पास को भी जीएं।
अब अपनों के साथ चलिए ...
जो कुछ पहले मुहैया था, फिर हमारी यादों में बस गया, वह सब तो अब भी है। छत, पतंगें, बरामदे, बालकनी। दादी की कहानियां तो कभी कहीं गई ही नहीं थी। ऐसी ही कुछ राहतें अब भी बिलकुल यहीं हैं।
जीवनशैली को समृद्ध बहुत बना लिया (परिणाम भी देख लिया), चलिए अब उसे सुखद बनायें।
मंज़िलों पर अब भी पहुंचेंगे आप, पर अपनों क साथ।
आज जीवनशैली पिछले दशकों की तुलना में बहुत बेहतर हुई है। लेकिन गुणवत्ता घट सी गई है। जितना विकसित देश उतने ही थेरेपिस्ट और लाइफ कोच और तलाक ही गिनती भी। भौतिक और तकनीकी रूप से हम काफी आगे निकल चुके, पर उतने ही दुखी भी रहते हैं।
देखा जाए तो हमारे पूर्वज हमसे बेहतर जीवन जीते थे। खुश रहते थे यार वो। जबकि आर्थिक रूप से हमसे ज़्यादा सुद्रढ़ नहीं थे। क्यूंकि उनके पास जीवन का आनंद लेने का समय था। और हम #work - #life - #balance में उलझे रह गए।
कोरोना महामारी भीषण विनाश लेकर आई पर साथ में हमें मायने सीखा रही है फिर से जिंदगी जीने के। इस #lockdown की वजह से ही सही, हमें एक-दुसरे के सामने और खुद के सामने बैठकर कुछ सवाल पूछने का वक़्त मिला है। क्या गत बना दी हमने इस बेहद खूबसूरत "उर्वी" की। आस-पास की। अपने परिवार की। अपने देश की। अपनी सेहत की।
क्या यही विरासत में देना चाहेंगे आप?
उम्मीद है … की अब जब हम बाहर आएंगे तो अपनों को, घर को, और अपने जीवन लक्ष्यों को देखने का एक नया और सुधरा हुआ नजरिया बना चुके होंगे।
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