मैं कागज़ ले के बैठी हूं, शब्दों के अंबार से कुछ अपने लिए बिन रही हूं। शब्द बहुत ज़्यादा हैं, खुद को खोया हुआ पाती हैं। जैसे मेले में खड़ी एक छोटी बच्ची। बस वैसे ही आँसू निकल रहे हैं मेरे मन से जैसे उस बच्ची के निकल रहे हैं आँखों से। हम किस से अलग हो गए या कोई हमे छोड़ गया, कई बार एक सा ही लगता है। लगता है पार कर लेंगे अकेले पर ये घबराहट भरा है। यूं सुकून है खुद में पर शायद वह अधूरा है तभी तो मन ढूंढ ही रहा है।
कई बार मेरा मन बन सँवारकर निकलता है मिलने उसे जिसे ढूंढ रहा है। मिलते हैं, बातें होती हैं, मुलाकातें होती हैं, कुछ दूरियाँ तय भी होती हैं पर फिर से मन को मन भाता नही, साथ छूटता है, फिर अकेला होता है, खुद को फिर खोया हुआ पाता है। फिर एक बार अकेले रहने का मन दृढ़ होने लगता है। आसान नही है यार। जो अगर होता तो ढूंढने, खोने, पाने का सिलसिला क्यों होता?
सो मन तैयार है ढूंढने उस साथ को एक बार फिर से गुंजाइश लिए की वह ज़रूर मिलेगा, जिसके साथ अनुभव के द्वार खुलेंगे, उल्लास में भीगी रोशनी भीतर आएगी, नम हुआ धूप का टुकड़ा अंकुरित हो उठेगा, खोई मुस्कुराहटें लौट आएंगी और मन का आंगन महक उठेगा। ज़रा ख्वाब सा लगता है, खूबसूरत है ना। इन ख्वाबों से अक्सर मुलाकातें हो जाती हैं रातों में और फिर दिन में यही ढूंढते हैं हम।
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