मैं इतनी सार्वजनिक हो गई


मैं इतनी सार्वजनिक हो गई की मझे मेरे से बहार सब पहचानने लगे| क्या करूँ? वक़्त की कोई खाली अंगुली पकड़ लूँ| कई बार शब्द पकड़ा तो अर्थ ही छूट गया| अभी उन लम्हों को पकड़ने की कोशिश कर रही हूँ जो पहले अनदेखी में अक्सर गिर जाया करते थे| इनकी झोली में कई सारी छोटी छोटी खुशियां मिली हैं| हाँ, बड़ा पाकर ज़रूर बड़ी खुशी हुई है पर ये छोटे आनंद के पल मुझे सुकून दे रहे हैं|


Reactions

Post a Comment

0 Comments