इंसानी वजूद में ना जाने कितने रंग के कितने ही धागे हैं जो अंदर ही अंदर आपस में उलझ-सुलझ कर इंसान के बाहरी किरदार पर असर डालते हैं। जिन धागों को कबीर से जुलाहा मिल जाये तो वह हर आर से पार हो जाये वरना खुद से ही उलझता रह जाये।
जिसे कबीर नसीब नही होता वह अपने आसपास एक झीनी सी दीवार बना लेता है। इस दीवार से कुछ भी एकदम साफ दिखाई नही देता लेकिन देखने की कोशिशें करते इंसान को सब कुछ दिख जाने का भ्रम ज़रूर हो जाता है।
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