वादा निभाकर वो फिर आयी कई मीलों का सफर तय करते हुए अनंत आकाश में टहलते हुए घने बादलों से हाथ छुड़ाकर, सीधे मुझसे मिलने 'उर्वी' का रुख करती। मैं ज़रा दूर रहती हूं, सो इंतजार करती हूं और इसका मुझे बुरा भी नहीं लगता क्योंकि वो जब मुझसे मिलती है तब सौ प्रतिशत मिलती है। उसका आलिंगन अधूरा नही होता। उसके सम्पूर्ण स्पर्श एक जीवंत अनुभव हैं। यूँ लगता है जैसे मैं और 'उर्वी' दोनो एक ही भाषा में मुस्कुरा रहे हों। कुछ देर में ही सब चमकने लगता है, धूल की परतें जो धुल जाती हैं, रूह का पटल साफ हो जाता है। पर अभी मन भरा नही है, अब मैं और 'उर्वी' इस मौसम की मुलाकात को पीने लगते हैं तब तक जब तक तमाम उलझनों की गर्मी शांत ना हो गई हो। मन तो खैर अब भी नहीं मानता। सो अब मैं और 'उर्वी' कुछ मुलाकात संजोने लगते हैं क्योंकि अब जाएगी तो चौमासे का चक्र पूरा करके ही लौटेगी।
बारिश सृजन के द्वार खोलती है, अंकुरित होने में मदद भी करती है। हर पौध नई कोपलें खोलकर खिलखिलाता है। फैली हुई गन्द साफ होने लगती है। हर चीज़ अपने मूल स्वरूप में लौटने लगती है। ताज़गी ओढ़े मन फिर से कोशिशें करने को तैयार हो जाता है। क्यों, है ना ये एक अचूक औषधि!
यह जो बेशकीमती है हमे सहज ही मिल जाती है शायद इसलिये हम इसकी बेकद्री करने से नही चूकते। ऐसे में जिस मर्ज का रोना हम रोज़ रोते हैं वह ठीक कैसे होगा? तो चलिए, औषधि का मान रखना सीखें और तन-मन से अपने मूल उन्मुक्त स्वरूप में लौट आने के प्रयास करें
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