आवाज़ों, खुशबुओं और यादों को कैसे मिटा पायेगा कोई


आवाज़ों, खुशबुओं और यादों को कैसे मिटा पायेगा कोई। 


यादें बसी रहती हैं। किसी सामान में, किसी जगह पर, किसी हरकत में … यादें जम जाती हैं।  


जब हम टूटे - फूटे घरों की कतारें देखते हैं जिन्हे इस कदर तोडा गया हो की कोई उनमे फिर ना बस सके। गिरी हुई दीवारें, उखड़े दरवाजे, चटका दी सीढ़ियां। छेनी - हथौड़ों ने सोंचा होगा की अब वीराना बसेगा यहाँ। 


पर अब भी कोई जानवर पक्षी, इन टूटे मकानों के बीच फैले मैदान में उग आयी जंगली झाड़ियां इनको वीरान होने से बचा लेते हैं। वे परिवार जो इन घरों में रहते थे, उनकी यादों में आज भी ये उसी तरह कायम होंगे। वहां तो कोई उन्हें उजाड़ नहीं सकता। पुरानी बसाहटें मिटाकर, नयी दुनियां बनाने का ख्वाब देखने वालों के मकानों में खुशियां भी बसने से परहेज करती होंगी। 


पुराने लोग उस अधेड़, मिठे हुए मोहल्लों को कागज़ की तरह उठाकर देखने की कोशिश करते हैं। इन उम्मीद में की शायद पुराणी तहरीर के लफ्ज़ दिख जाएँ। जुड़े हुए आंगनों वाले, छोटी दीवारों और खुले दरवाजों वाले वो घर अब ऊंची दीवारों और गुम दरवाजों वाले मकानों में तब्दील हो गये हैं। 


पूछिए जरा किन्ही से यहाँ , मुंडेर देखि है आँगन की कभी, जिन पर आचार की बरनियाँ राखी जाती थीं। आलू के चिप्स, मंगोड़ियों की थालियां - परातें रखी जाती थी। अब बहुत कुछ छूट सा गया है साहब।


पर अब भी अगर मन हो तो पुराणी बस्तियों, घरों और पुराने लोगों में उन यादों की धड़कनों को सुना जा सकता है। अपनी बस्ती की निशानियां ढूंढते चार-पांच पूर्णे लोगों से किसी नवयुवक ने कह दिया, अब आप वाली दुनिया नहीं है यहाँ। अब तक शांत से ही सब देख कर चल रहे वे रुके , एक दुसरे को देखा और हँसते हुए कहा।।  हमारी दुनियां तुम्हारे पास थी ही कब ? और आगे चल दिए।    



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