सामने कच्ची बस्ती में एक घर है, जिसका दरवाजा दिखाई तो नहीं देता, लेकिन दीवार की आड़ से उसका अहसास होता है। सुबह छह बजे से उस घर से गली में एक नन्ही बच्ची निकल आती है। साधारण मापदंडों से देखें, तो जिस तरह बस्ती बनी है, वहां हर घर के सामने बस एक पतला रास्ता है, फिर कटाव है खाइ जैसा, जिससे नीचे के स्तर पर दूसरे मकानों की टीन की छतें हैं। इस बेहद खतरनाक मिटटी से लिपे रास्तों पर चलना नट - सी सावधानी की दरकार रखता है, वहां वो बच्ची अपने से दोगुने कद की झाड़ू लिए सुबह से घूमती है। खाई जैसे कटाव के किनारे उकडू बैठ जाती हैं, नीचे के घर में बंधी बकरियों को पुकारती हैं। कोई प्यार से पकड़ने का अभिनय करे, तो इन्ही गलियों में बेख़ौफ़, बिंदास किलकारी मारती दौड़ पड़ती है। उससे कुछ बड़े बच्चे उन गलियों से साइकिल भी निकाल लेते हैं।
जहाँ हर कदम पर गिरने का डर हो, खतरा हो, सीमाएं हों, चलना दूभर हो, वहां ये बच्चे कैसे खिलखिला लेते हैं? तुलना करने को तो इनके पास पूरी दुनिया मौजूद है, लेकिन अपनी गलियों में कुशल साइकिल - चालन और टपरों पर पतंगों के पेंच से ये जीवन में रंग भर लेते हैं। इनमे हुनरमंद भी कम नहीं हैं।
अपनी साइकिल खुद सुधारते हैं, अपने म्यूजिक सिस्टम, जिन्हे बड़े नाज़ से डेक कहते हैं, उसकी आवाज़ को कभी नीचा नहीं होने देते, लकड़ी के छोटे - मोठे सामन भी बना लेते हैं। हांलाकि बड़े बच्चों को कभी बस्ता टांगे स्कूल जाते नहीं देखा , लेकिन छोटों को बस्ता टांगे स्कूल जाते देखा है।
ये गलियां भले बेहद संकरी हों, खतरों से , फिसलन से , अंधेरों से भरी हों , लेकिन यहाँ सीखने की लगन की कमी नहीं है। जो पढ़ने का जोश भी आ जाये , तो इन बच्चों के लिए - जो जिंदगी में संभलकर रहने को बचपन से ही समझते आते हैं , संतुलन बनाना जानते हैं , एकजुटता और सामाजिकता की अहमियत समझते हैं - कोई राह मुश्किल नहीं होगी।
जो संभलकर चलते हैं , खतरों को दरगुज़र करके जीते हैं,वो डरना नहीं जानते। जिसे ढीठता समझते हैं लोग , दरअसल वो इनकी निर्भीकता है। सही दिशा मिले, तो इनकी ऊर्जा विकास के कई सूर्या ऊगा सकती है।
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