बच्चे कभी-कभी छोटी सी दया का प्रस्ताव लेकर आते हैं। बड़े कभी उसे स्वीकार करते हैं, तो कभी मामूली समझकर दरकिनार कर देते हैं। जरा सी संवेदना, सहानुभूति का बड़ा आधार बन सकती है।
"माँ, घर में कोई पुरानी चादर है क्या?" बेटी ने पीछे से आकर गले में हाथ डालते हुए पुछा। रोटी बनाते हुए प्रश्नवाचक आँखों से उसकी ओर देखा तो बड़ी मासूमियत से बोली, "देखो ना मां, दरवाजे पर एक गाय और उसका बछड़ा बैठे हैं, उनको बहुत ठण्ड लग रही है। " मुस्कुरा कर उन्स्की और देखते हुए माँ बोली, "अरे बीटा, गाय क्या चादर ओढ़ कर बैठी रहेगी, कैसी सीए हो तुम। बुद्धू कहीं की। "
पर जैसी उसका ध्यान था ही नहीं। माँ की ओर से सकारात्मक जवाब न मिलते न देख वो चादर ढूंढने चली गयी। तभी माँ की कानों में उसकी माँ के शब्द गूंजे, "बीटा, ज्ञान के साथ संवेदना होना आवश्यक है, संवेदहीन ज्ञान घातक हो सकता है।" एक सीए बेटी मूक पशु के लिए अपनी समवेदना वयक्त कर रही थी। ऐसे कई लोग देखे होते हैं जो किसी दुर्घटन के समय मूक दर्शक बन जाते हैं। यह सही नहीं।
माँ ने तुरंत अपना काम रोका। दो चादरें निकाली और उन दोनों गाय और उसके बछड़े को ओढ़ा दी। पिता प्रेम से अपनी बेटी की संवेदना को निहार रहे थे। बछड़ा चादर सहित घूमने लगा। और माँ ने दो चादरों के बदले अपनी बेटी की संवेदना सुरक्षित कर ली।
ज्ञान का कोष बेटी ने अपनी मेहनत से खूब भर लिया था। अब संस्कारों के ज़रिये संवेदना के खजाने भरने थे। यह एक अच्छे शुरुआत थे।
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