प्रकृति का प्रकट भाव - बारिश



बारिश में भीगना किसे नहीं पसंद, पर उन बूंदों की झड़ी को खिड़की से निहारना भी कहीं सुखद है। ये अल्हड - बेबाक बूँदें भिगोती हैं 'ऊर्वी' को झूमते हुए, प्रकृति के अनोखे रंगों को उभारते हुए। 

अभी संक्रमण के दौर में जब हमारी जिंदगी कुछ तनाव में है, तब मौसम कि यह करवट सुकून दे रही है। इत्मीनान का बोध है की प्रकृति अपने चक्र पर सहज - सामान्य रूप से चल रही है। 

और बारिश ..... यह तो एक ऐसा मौसम है जिसका इंतज़ार उम्र का हर पड़ाव करता है। यह मौसम जो दूर से ही नज़र आता है। और जो पास आकर छु जाता है तो गीली गुदगुदी कर जाता है। किस मौसम को घंटों बैठ के ताक सकते हैं ? एक बारिश ही तो ऐसी है।

हम गर्मी को रोकना नहीं चाहते। सर्दियों को सब पिघलाना चाहते हैं। पर बारिश का स्वागत तो बाहें खोल कर होता है। यह एक खिंचाव है या जुड़ाव है, इसकी अपनी ही तबियत है ; एक अपना ही मिज़ाज़ है। 

पानी इसलिए भी ख़ास है क्यूंकि वह अपनी पहचान ज़ाहिर कर देता है ..... जहाँ भी थोड़ी सी जगह मिली, वहीँ भरने लगता है। भीगे पत्तों से फिसलती बौछारों की छुअन  ... आह ! कितना कोमल, कितना स्नेहिल ! यूँ लगता है जैसे बिटिया अपनी माँ के घर आयी हो। हाथों में मेहँदी के फूल लिए, पायल - चूड़ियों की खनक से रोशन, चटक रगों की चुनरिया ओढ़े जब सावन के झूले झूलते हुए पूरे आँगन को आबाद करती है। इस ऋतू की यह रस्म बेहद मीठी है। 

बरसकर खुश होती है, अति में आकर क्रोधित होती है, और कभी हलकी सौम्य फुहारों से राहत का एहसास दे जाती है। 

जैसे भीगी हुई आँखें मुस्कुराहटें और दुख दोनों बयां करती है, और किसी भी हाल में साथ ना छोड़ने का एहसास भी कराती है। 

बारिश .... शायद कुदरत की ऑंखें ही हैं।

 


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