बंद दरवाजे मन को उलझाते हैं। कोई क्यों चुप्पी ओढ़ेगा? उगने के सलीके के लिए संवार का इत्मीनान ज़रूरी है।
कभी देखा होगा हम सबने, अपने शहर में या किसी अज़नबी शहर की किसी सड़क से गुजरते हुए की कुछ मकान बंद पड़े होते हैं। सूखे पत्तों से भरे बरामदे, बंद दरवाजों पर लगे कुछ सुनदर, तो कुछ आम-से ताले, जंग खाये कुछ अलबत्ता। मानों अब ना तो उन्हें खुलने को कोई आशा है ना इच्छा। रंग की पपड़ियों से भरी फेंसिंग, घास, अनचाहे अजीब, अजनबी सूखे-हरे पौधों से भरा आंगन।
किसी मकान के ाह्ते के हिड्डे में बेतरतीबी से झूलता कोई पेड़ है, तो किसी के पास सूखती झाड़ियां। उखड़ी फर्शियों को किसी के क़दमों का इन्तजार भी नहीं। चुप हो जाने का हाथ समाया लगता है ऐसे मकानों में।
अज़नबी पंछी यहां बहुत आते हैं। उन्हें यहां का सूनापन अपने लिए मुफीद लगता है। जहां-तहां तिनके जामं करके घोंसला बना लेते हैं। उन्हें कहां तलाश होती है किसी मुस्तकिल घर की। सूने मकान उन्हें भाते हैं।
किसी की याद दिलाते हैं ये मकान ...
इनकी चुप्पी बुजुर्गों की खामोशी से कितनी मेल खाती है। दौड़ती-भागती सड़कों गलियों में किसी घर के आगे बैठे बुजुर्गों की आखों में वही हाथ दिखता है, चुप रहने का।
इनकी निगाहों में वही ताले दिखाई देते हैं, जो खुलने की उम्मीद छोड़ चुके हैं।
बेतरतीबी से उगते पेड़ों की शाखाएं हैं, जो मन को ढके हुए हैं।
मन करता है, बुहार दें उन आंगन को।
खोलें उन बंद दरवाजों को की मकान घर बनने के लिए होते हैं। पूछें उन सन्नाटों से की चुप क्यों हो ? बोलो। सुनाओ अपने वक़्त की कहानी।
सिखाओ इस दुनिया के हर बाशिंदे को की घर का मकान हो जाना ठीक नही। बड़ों का इस तरह चुप हो जाना नयी पीड़ी के रास्ते अँधेरे कर देता है।
मन के सूखे पत्ते बुहार दो, उमीदकी फर्शियां सुधार दो, बढ़त को न्योता दो, झाड़-झंझाद दूर कर दो। हर बढ़ा हटा दो की सांस ले सकें कल को आज से और आज को कल से जोड़ती कड़ियाँ।
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