पुकारती आँखें, उन्हें घर ले आएं


ऐसे मासूम चेहरों को कभी गौर से देखा है जिनकी आंखों से उमीदें झाँकतीं हैं? जो हम में से किसी में अपनी माँ - अपने पिता को खोजती हैं। दूसरी तरफ आपने ऐसे चेहरे भी देखे होंगे जो माँ-बाबा सुनने के लिए लालायित रहते हैं।

एक बच्चे की जिंदगी में माँ-पिता का होना और एक बच्चे से अपने लिए माँ-बाबा का सम्बोधन सुनना, एक सी ज़रूरतें हैं। जिनके जीवन में यह कमी है वे इसे ज़्यादा महसूस करते हैं। जिनकी जिंदगी में ये दोनों हैं, वे इनका मूल्य नहीं समझते। माता-पिता की अपने बच्चे को लेकर बेकद्री और उधर बच्चों का अपने माता-पिता को लेकर घटता समर्पण, अनदेखी ... यह आम है। 



जिस तरह मनुष्य में जन्म लेने से हमारे कुछ मानवाधिकार सुरक्षित किये गए हैं, वैसे ही मुझे लगता है, की जन्म लेते ही वात्सल्य, ममत्व लाढ़-लगाव के भाव का हक़ भी हर शिशु, हर बच्चे के लिए सुरक्षित होना चाहिए। हाँ, अनाथालय- स्वयं सेवी संसथान  जगहों पर इस तरह की कोशिशें की जाती हैं पर एक साथ इतने सारे बच्चों को उन सभी भावों की गर्माहट दे पाना मुश्किल है। 

वे जिन्हे माँ-बाबा कहने वाला कोई नहीं होता, वे फिर भी दुसरे बच्चों के साथ समय बिताकर अपना मन लगा  पर वे बच्चे, वे नन्हें जिनके माँ-बाबा नहीं होते, जरा सोंचिये उनके लिए कितना मुश्किल होता होगा। डर, खालीपन, सुरक्षा का अभाव कितना कचोटता होगा उन्हें। अपनी संवेदनाओं के नुकीले बर्फ से कितने बार चोटिल होते होंगे ये नन्हे कोमल हृदय। जब वे दूसरे बच्चों को इनके माता-पिता के साथ  देखते होंगे, क्या हम-आप महसूस भी कर पाएंगे उनके कैसा लगता होगा? आप अपने आप को इस पूरी पृथवी पे नित्तांत अकेला पाएंगे। किसी नन्हे से दिल के लिए इस भाव के भारीपन को संभालना कैसा रहता होगा?

तो संवार लीजिये अपना और उनका जीवन। किसी के माँ-बाबा की तलाश को पूरा कर दीजिये। किसी की खोजती आँखों को 'मिल' जाइये। घर ले आइये उन्हें। ऐसा करके आप दोनों के लिए भावनात्मक और संवेदनात्मक तृप्ति देंगे। बच्चों को गले लगाकर आप जिस ममत्व का अनुभव करेंगे वह अद्भुत होगा।  

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