कभी किसी खाली मन से मिले हो?


क्या कोई ऐसा मन देखा है जो खाली हो? जिसमे अहसास ना हों, उम्मीदें ना हों, सपने ना हों, जिंदगी ना हो? कौन भरता है हमारे मन को? हमेशा स्पर्श की ज़रुरत नहीं होती, बिना छूए भी बहुत बार कई चीज़ें महसूस करा देती है ज़िन्दगी। चीज़ों का सफल होना या सफल ना होना इतना ज़रूरी भी नहीं होता, ज्यादा ज़रूरी होता है उसका होना, घटित होना। 

जब भी कोई चीज़ होती है तब वह एक अनुभव पैदा करती है। अब ज़रूरी नहीं है की उस अनुभव का स्वाद मीठ यही हो, कसैला भी हो सकता है। चीज़ें हमारी सुविधा अनुसार तो नहीं होती रहेंगी ना। जो अगर हो गयीं भी तो उसे आप एक मीठा इत्तेफ़ाक़ कह सकते हैं। और अगर नहीं हुई तो 'उसके' अनुसार हो गई जिसका मन खाली है, जिसे इसकी नित्तांत ज़रुरत है। 

हाव-भाव में, बातों में, हरकतों में, खासकर की आँखों में आप उस खालीपन को साफ़ देख सकते हैं। ना, ऐसे लोग अवसाद (depression) में नहीं हैं। कहीं आप गलत समझ उन्हें पकड़ के mental health पे लेक्चर न देने बैठ जाएं।  फर्क है, दोनों में। एक अभी शून्य पर है और दूसरा शून्य से नीचे जा चुका है।

मन, जहां हमें लगता है की अहसासों, सपनों, उमीदों का होना ज़रूरी है जीने की लिए, जब भी इन सब के दिखे, अपने मूल में लौटें। अपनी जड़ों को छूएं। जब छाती खुल जाये और साँसें महसूस होने लगे तब समझिये मन ने द्वार खोल दिए हैं। संभावनाओं को फिर से जगह मिलेगी। आँखों की नमी लौटेगी। हरकतों में तेज़ी आने लगेगी। बातों में कहानियां बोलेंगी। और मन मयूर (मोर) हो जाएगा।  

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