दर्द ये साझा है हर स्त्री का
पाकिस्तानी फैशन डिज़ाइनर अली जीशान ने अपने bridal couture collection में एक ऐसी बात दर्शायी है जिसे लगभग आधी से ज़्यादा महिलायें झेलती हैं, चाहे कहीं की भी हों, सरहद के इस पार या उस पार। कलेक्शन का नाम है 'नुमाइश'। क्यों, है ना ये वही बात जिसे हम सब अपनी ज़िन्दगी में महसूस करते ही रहते हैं। फिर चाहे स्त्री किसी भी तबके की हो, नीचे या ऊंचे, जगह कहीं की भी हो आपके अस्तित्व का exhibition ज़माना लगा ही देता है।
'नुमाइश' में एक युवती दुल्हन बनी है, सजी-संवरी। वो एक गाडी को हांथ से जोर लगा कर खींच रही है। वह गाडी दहेज़ के सामान से लदी हुई है जिस पर दूल्हा सबसे ऊपर है।
फिर भी पुरुष कहते हैं कि स्त्री सब पर भारी है |
कुछ पुरूषों का कहना है की हम दहेज़ नहीं लेना चाहते पर माता-पिता नहीं मानें तो हम कुछ नहीं कर सकते। कैसी सोंच है ये?
व्यथित मन, जख्मी चेहरा, दर्द से कराहती देह, असुरक्षित भविष्य, टूटते ख्वाब, दरकता सम्बन्ध, अरुचिकर जीवन और अवसादित जीवन शैली, फिर भी जीवन जीने की मजबूरी। ये उन 5% महिलाओं की बात नहीं हो रही जिनका प्रराब्ध बढ़िया है, उन्हें सब 'अच्छा' मिला है। वैसे कई स्त्रियों को तो यह पता ही नहीं की उनकी नुमाइश होती भी है। उनके लिए यह सहज बात है। ये उन से भी ज़्यादा दयनीय हैं क्यूंकि इन्होने खुद के अस्तित्व के घायल होने को स्वीकार लिया है।
ज़माना स्त्री को भोगता है, ऐसा कहना कतई तीखा होगा, पर क्या सच नहीं है? उसकी कोमल चमड़ी पहले ध्यान खींचती है तो उसके अंदर कोमल मन का नज़र अंदाज़ होना लाज़मी है। और ये सब बड़ा सहज है पितृसत्ता वाली सोंच के लिए। मैंने यहां पुरूष शब्द नहीं लिखा, क्यूंकि यह एक सोंच है जो किसी की भी हो सकती है। मैंने अधिकतर यह महिलाओं में ही देखी है।
स्त्री का दर्द रिसता रहता है कुछ वैसे, जैसे किसी पुराने जंग लगे हुए नल से पानी की बूंद टपकती है। जिस पर नज़रें तो सबकी हैं पर ठीक कराना कोई गैर-ज़रूरी सा लगता है।
जब एक स्त्री किसी साधना को अपना स्वभाव और सत्य को अपनी आत्मा बना लेती है तब पुरुष उसके लिए ना महत्व का विषय रह जाता है ना भय का कारण। और इस सत्य को मान लेना, स्वीकार लेना पुरुष के लिए कभी संभव ना हो सका।
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