होली का अपना सुरूर है!
खिलने लगी है चैत की गुलाबी टहनी
होली में सामने आना रंग खेलना कहलाता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस ख़ास दिन के लिए सफ़ेद कपडे सिलवाते हैं की होली है तो दिखे भी। ये लोग खुशियों भरे रंगों की यादों को संजो लेना जो चाहते हैं। बड़े ध्यान से चुनते हैं अबीर-गुलाल के रंग, बेहद मुलायम और महक भरे।
बड़ों के चरणों में शीश झुकाएं या हमउम्र और छोटों के माथे पे टीका लगाएं, रंग सजीले लगने चाहिए। फिर सजती है महफिलें। दिल खोल के नाचते हैं, इस वक़्त लय ताल कम और उत्साह ज़्यादा देखा जाता है। पीठ पर गीली हथेलियों से छाप देते हैं। जो धूम मचती है, कसम से देखने लायक होती है।
चेहरों की उदासियों को पोछते हैं ये रंग। कितना भी फीका हो, रंग रौशन कर देते हैं चेहरा, मौसम, मिज़ाज, सब। क्यों इंकार करते हैं? आइये, मुँह और मन दोनों मीठा करते हैं। गुलाल और गुजिया से थाल सजाकर आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
चेहरों और जीवन को सजाने के लिए जिस त्यौहार पर कहा जाता है - "हम रंग लेकर आए हैं" उत्सवधर्मी होते हैं ये।
तन के तार छुए कइयों ने, मन का तार कहां भीगा, आप रंग दो तो होली है। आइये फागुन का रस घोलते हैं। इस बार की होली पर मेरा रंग है पीला, मेरी तरफ से लगा लेना, दूर जो हो। पिछली बार जो रंगा था, वो दुपट्टा आज भी गुलाबी है।
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