बराबरी का हक़
कितनी महिलाएं अपनी ज़िन्दगी से जुड़े फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं? खासतौर पर शादी के बाद। नौकरी करना, माँ बनने के लिए मन से तैयार होना, अपने मायके में आर्थिक मदद करना जैसे कई फैसले कमहिलायें खुल कर नहीं कर पाती। और अगर वे ऐसा कर लें तो वो किसी को सहज स्वीकार नहीं होता। उन्हें मनमर्जी करने वाली, अड़ियल बुलाया जाता है। उनके माता-पिता के दिए संस्कारों पे फट से उंगली उठा दी जाती है।
महिलाओं को स्वस्थ चर्चा करने का मौका कब मिला है ? हमे कभी मांगना तो कभी हासिल करना पड़ा है। बात करने की छूट भले हो सकती है, पर फैसले लेने का अधिकार ज़्यादातर नहीं है। और सबसे ज़ायदा ज़रुरत इसी बात की है।
हम फैसले ले पाएं। अपनी ज़िन्दगी के लिए कुछ तय कर सकें। कोई बात जिससे काफी हद तक केवल हमारा ताल्लुक हो, कर पाएं। इन सब के आधार पर कोई हमे 'जज' ना करे। हमे 'बनाये गए ' खाकों में नहीं जीना। यही सब सामान्य बनाना है।
जैसे पुरुषों के फैसले या उनके नैन-नक्श, रंग-रूप-लावण्य सामान्य तौर पर लिए जाते हैं ठीक वैसे ही स्त्रियों के साथ भी हो। यह सब कह के कोई अनोखी चीज़ नहीं मांग ली हमने।
ऊपर जो तस्वीर देखी अपने, क्या कहती है वो? तस्वीर ये बता रही है की जब बराबर का हक़ मिलता है तो क्या कुछ नहीं जीत लेती है स्त्री। माधुरी कानितकर जी ने इसे कर दिखया जब साथ मिला पति का परिवार का। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने आते रहते हैं और आते भी रहेंगे। ऐसी असंख्य महिलायें हैं जिन्हे पति के रूप में ऐसा सम्मान और प्यार नहीं मिल पाया फिर भी हिम्मत हारना उन्होंने चुना नहीं। चीज़ें सहज मिले तो राहें राहें कुछ आसान हो जाती हैं वरना हमारे संघर्ष की चमक आपकी आँखों को कहीं चौंधिया ना दे।
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जिसे अपने पंखो पर विश्व्वास होता वही स्वतंत्र होता हे अपनी मर्जी की उडान के लिये
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