हम खुद के ही सहारे हैं
असल में हमारे हाथों में अपना ही हाथ होता है। इसे कसकर थामे रखिये। सारे सहारे मन के हैं। खुद को समझिये।
आजकल जहां भी नज़र जाती है वहां घबराहट ने पैर पसारे हुए हैं। बातें बहुत हो रही हो रही हैं, पर सबके शब्दों में बस अकेलापन गूज रहा है। खासकर की पिछले कुछ दिनों से इस अकेलेपन को सदमे की तरह जीया है कुछ लोगों ने, तो कुछ तो खुद को हार ही बैठे।
भीतर झांकना, खुद से मिलना, बातें करना, सब कहीं भूल गए हम, और कइयों ने तो यह अनुभव कभी लिया ही नहीं तो उन्हें पता ही नहीं इस राते के बारे में जो अंदर जाता है। बेमतलब के शोर, शब्दों के आडंबर और अर्थहीन बहसों ने सब दबा दिया है। कभी शोर कम कभी ज़यादा। वो मौन के साथ खुद से मिलने का अनुभव करना कहीं खो गया है। इसी चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है आज के इस कोरोना काल में।
मौन की अपनी भाषा है, उस शान्ति की अपनी बातें हैं, इस चुप्पी में हम घूम नहीं होते बल्कि अपने लिए सहारा हमे यहीं मिलता है, बस उसे ढूंढने की ज़रुरत है। मौन एक नाता है खुद का खुद से, सच्चा और पक्का। खुद का खुद से मिलवाने वाला मौन एक अन्तराल है जिसकी ज़रुरत है हमे यह समझने के लिए की कहीं और नहीं जाना है, यहीं अंदर एक रस्ता जाता है वहीं मंजिल है।
इस अहसास की मिसाल देना भी आसान नहीं है। यूं समझ लीजिये की जैसे किसी चुभन से मिलती राहत, दुखते पैरों को समेटकर बैठने का सुकून, तेज़ ठंड में बहुत दिनों बाद सुबह खिलकर निकली धुप। यार ये आज के कड़वाहट भरे हालातों में मिठास की चंद बूदें हैं। ये बूंदें हमे हमारे भीतर के संसार में मिलेंगी। पर अपनी मर्ज़ी से चलकर आना होगा।
जब कोई साथ ना हो तो मौन हाथ थाम लेता है। और मन अकेला होने से बच जाता है। तो आईये ,बाहर की अफरा-तफरी से भीतर को प्रभावित होने से बचा लेते हैं। चलते हैं भीतर के सफर पर।
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