इस मास्क को उतार फेंको

यह मास्क लगाना ठीक नहीं 

do not fake yourself

  


यह आप भी मानेंगे की झूठ बोलकर चीज़ें पहले जैसी नहीं रहती। झूठ बोलते ही अंदर एक हलचल सी मचती है, अगर झूठ छोटा हो तो हल्की बेचैनी। और सच कह देने के बाद इसके ठीक विपरीत, शांति और सहजता लौट आती है। बात यह है की झूठ बोलकर हम स्वस्थ नहीं रह सकते। हमारे शरीर में बनने और बहने वाले रस बदल जाते हैं। आसान शब्दों में chemical लोचा!

झूठ एक मास्क है, वो मास्क जो हमारे अंदर virus पैदा करता है। यह हमारे अंदर सच को ढक देता है। झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपना चेहरा छुपाना चाहता है, छुपाते-छुपाते वह अपना ही सही चेहरा भी भूल जाता है। और ये सच बताने से ज़्यादा मुश्किल है क्यूंकि इसके लिए कोशिश करनी पड़ती है, भूमिका बनानी पड़ती है। सच बोलने के लिए इस से कम तैयारी करनी होती है। 

भले के लिए बोला गया झूठ स्वीकार करने योग्य है। जब कोई झूठ कई-कई बार दोहराया जाय तो सच ही लगने लगता है। हमारी चाहतें हमे झूठ बोलने  के लिए उकसाती हैं। जिंदगी में हम इसका बहुत काम लेते हैं। पर ये शक को पैदा करता है। 

दो लोग साथ रहें, साथ काम करें, आपस में विशवास ना हो, तो क्या बचा रह जायेगा? विश्वास ही तो दो लोगों को जोड़े रखता है। फिर भी हमे झूठ में ही सहारा नज़र आता है। एक तरह से ज़्यादातर लोगों ने झूठ के आगे घुटने तक रखें हैं। 

झूठ कौन बोलता है और क्यों बोलता है? वह जिसके भीतर का विश्वास हिला हुआ हो। या फिर वो जिसे सामने वाले का सम्मान गैर ज़रूरी लगता हो। तभी तो वह उन से झूठ बोलकर, धोखा देकर अफ़सोस नहीं करते। 

बुद्धि का किरदार ज़्यादा है इसमें। वह बुद्धि रसहीन और भावशून्य होती है। सामने वाले को छोटा ही साबित करना चाहती है।  रश्तों को तोड़ देती है, जोड़ तो कभी सकती ही नहीं। 

किसी से झूठ बोलने के लिए सबसे पहले हमे खुद से झूठ बोलना होता है। हम अपने मन में झूठ को तैयार करते हैं। उस झूठ को सही साबित करने के लिए, कौन से और कितने नए झूठ बोलने पड़ सकते हैं, इसकी पूरी तैयारी होती है। फिर जैसे ही झूठ को बोलने की बारी आती है, हमारी सांसें असहज हो जाती है, उसका chemical balance डिस्टर्ब हो जाता है। 

जिंदगी में ना जाने ऐसे कितने ही झूठ हैं जो हम जिंदगी भर बोलते हैं। जैसे कहीं अगर हमने अपनी उम्र कम लिखी है, तो पूरी उम्र वही बताना पड़ेगा। और जितनी बार बताएंगे उतनी बार हमे भी अफ़सोस होता रहेगा की झूठ बोल रहे हैं। पर रोक नहीं सकेंगे। 

शरीर का पूरा रसायन शास्त्र ही बदल जाता है। और समय के साथ आगे चलकर यह कोई बिमारी का रूप ले ले तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। हमारे मन का चोर हमे खा जाता है। 

आपस में सम्मान खत्म, सौहार्द खत्म, प्यार खत्म, विश्वास खत्म, इस तरह आपसी संवाद भी कम हो जाता है। फिर व्यक्ति सिर्फ एक दुसरे की कमियां गिनाते हैं। नकारात्मकता फ़ैल जाती है। 

जहां सच है वहां कभी कबार कोई एक बारगी थोड़ा कड़वा हो सकता है पर वहां सम्म्मान का वास होता है।  आत्मविश्वास होता है। आबो हवा प्रोत्साहित करती है। पारदर्शिता आती है। जिंदगी सहज हो जाती है। ढंकने की कोशिशें नहीं करनी पड़ती। 

इसे ही तो "सत्य मेव जयते" कहते हैं।           

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