क्या होता है धर्म?
हमारे देश की पहचान इसके धर्म से ही होती है। पर ये कौन सा धर्म है? इसे सही से पहचानना ज़रूरी है। गलत परिभाषा समझ ली तब तो अनर्थ है। जैसा की आजकल के समय में कुछ लोगों ने धर्म को धन से खरीद लिया है और सांप्रदायिक बनाकर इसे खूंटे से बांध दिया। पूजा, प्रार्थना, इबादत, के जो तरीके हैं उन्हें धर्म का नाम दे दिया। बस इसी वजह से धर्म ने अब संघर्ष करना शुरू कर दिया।
क्या हम धर्म को शरीर से पहचान सकते हैं? क्या हम धर्म को खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने के तरीकों से पहचान सकते हैं? क्या हमारी भाषा बता पाएगी कौन सा धर्म है?
जैसे, सच का केवल एक ही रूप हो सकता है वैसे ही धर्म का भी केवल एक ही रूप है। धर्म हमारे भीतर का विषय है।धर्म हम खुद चुनते है। फिर जिंदगी भर उस धर्म को जीते हैं। फिर वही हमारी पहचान बनता है। यह उस रिश्ते का नाम है जो हमारा हमारे ईश्वर से है। यह हमारी निजी संपत्ति है। इसे बांट नहीं सकते हम। किन्ही दो जनों का धर्म भी एक जैसा नहीं हो सकता। समूह में तो यह संभव ही नहीं।
थोड़ा और भीतर चलते हैं। आत्मा के करीब। अब अगर इस आधार पर बात करेंगे तो सब एक ही है। वैसे ही धर्म के आधार पर भी हम एक ही हुए। पूजा एक समूह में भी हो सकती है, मन में भी हो सकती है, दिखावे के लिए भी, और परम्परा निभाने के लिए शरीर से भी हो सकती है। तो पूजा का जो तरीका है उसे सम्प्रदाय कह सकते है। तरीके को धर्म नहीं कह सकते।
धर्म तो मुक्ति का रास्ता भी बना देता है। जहां किसी भी शरीर को धारण ना करना पड़े, सबसे उन्मुक्त। पर हमारे दिमाग में जो भरा है वो हमे बांधे रखता है। चाहे वह हमारे माँ-पिता जी ने ही सिखाया है, या स्कूल ने या समाज ने। हमे छूट कहां है? घर वाले बेहतर पढाई करके बड़ी नौकरी करने के लिए उकसाते हैं। हमे मन के आँगन में खेलना ही नहीं सिखाया, मन को छूने या देखने ही नहीं देते। जरा सी परेशानी आयी नहीं की हम घबराने लगते हैं। भीतर से चरमरा जाते हैं। धर्म तो भय दूर करता हैऔर ताकत देता है।
मुझे आज तक किसी ने यह नहीं कहा की जिंदगी को देखो, समझो, महसूस करो और अपना जीने का तरीका निकालो। जो भी मिलता है बस कोई ना कोई रास्ते पे चलने की देता रहता है। मेरा सवाल यह है की सलाह देने वाले को भी मैं दुखी ही देखत हूँ। उसकी सलाह सही है तो वह खुश क्यों नहीं। घर-बहार-कार्यस्थल-समाज, सभी तो दुखियारों से भरे पड़े हैं और सभी सलाहकार भी हैं। कोई कहता है मुझे किसी बड़ी MNC में मैनेजर बनना चाहिए, कोई कहता है किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनना चाहिए, कोई श्री कृष्णा के उपदेश सुनाने लगता है।
कोई यह नहीं कहता की सब कुछ मूलतः एक जैसा ही है। मुझे करना है वह मेरी समझ और मेरे कौशल से मुझे खुद ही पहचानना होगा। वैसा किया तो जीने का तरीका भी सही होगा और धर्म निभाने का सलीका भी।
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