आखिर किसे कहते हैं मंदिर?

मांगने ही आते हो, कभी मिलने भी आया करो



जब भी, जहां भी, कोई खुदाई होती है, वहां से किसी प्राचीन मंदिर के ही अवशेष मिलते हैं। नियमित व्यवस्था ना होने से  भारत के कई प्राचीन मंदिरों की भव्यता खो गयी। और कुछ मंदिर तो अब केवल खंडर का रूप ले चुके हैं क्यूंकि राज्य सरकारों ने इन्हे कैद कर लिया है। मूर्तियों के चोरी हो जाने या टूट जाने के बाद  भी एक श्रद्धालु मन उसे अभी भी मंदिर ही बुलाता है। 

देखा जाए तो दिल भी एक मंदिर ही है। मंदिर की हमारी जिंदगी में क्या भूमिक हो सकती है? क्या गाँव के मंदिर में और हमारे मन के मंदिर में कोई समानता है? है। दोनों में प्रभु बैठे हैं। मतलब जहां प्रभु बैठे हैं वह मंदिर। मतलब हर व्यक्ति एक चलता-फिरता मंदिर। 

फिर इतने शिल्पकारों, मूर्तिकारों, वास्तुकारों की म्हणत से इतने अद्भुत और दिव्या भवन क्यों बनाये गए? क्यूंकि मंदिर की हमारे जीवन में भूमिका है। 

पहली है सामाजिक भूमिका। गाँव में स्थापित मंदिर अनकहे ही वहां के लोगों की दिनचर्या बना देते हैं। मंदिर में होने वाले भजन, बजने वाले ढोल-मंजीरे, घंटियों से आ रही ध्वनियों सुनकर गांववाले दिन के पहरों का अनुमान लगा लेते हैं। जैसे ब्रह्म मुहूर्त में जागना, फिर भोजन का समय, सांझ की आरती, रात का सोना ..... सब विभिन्न समय पर मंदिरों से आ ध्वनियों को सुनकर। बिना किसी शब्द के ये ध्वनियाँ कितना कुछ बता जाती हैं। 

मौसम के हिसाब से रहन सहन, पर्व-त्यौहार, कथाएं और प्रसाद की व्यवस्थाएं गांववालों के जीवन में बनी रहती हैं। किसी विशेष सूचना के लिए ढोल-नगाड़े भी काम में आते थे। 

यह जान के अच्छा लगता है की आज भी भारत में ऐसी व्यवस्थाओं वाले मंदिरों से जीने वाले गाँव हैं। वरना आज तो हमारे पास एक-दुसरे तक पहुँचाने के, बात करने के इतने तरीके बन गए हैं की हमने मंदिरों की भूमिका की तरफ ध्यान देना बहुत पहले ही छोड़ दिया। यूं भी अब मंदिरों के दर्शन किसी विशेष बात के लिए,परीक्षा या इंटरव्यू के लिए रह गए हैं। या कभी कोई बड़े पैमाने पर घर के बुजुर्गों ने कोई पूजा रखवाई हो। 

मेरी दादी जी जब शहर आईं तो अपने साथ हमारे गाँव के मंदिर को साथ लेकर आईं। जब से मैंने होश संभाला, मैंने हमारे घर के मंदिर में गाँव  वो तमाम भूमिकाएं देखी। बचपन में मैं कृष्णा-शिवा के साथ अपने घर के बगीचे में शाम को खेला करती। देर शाम मैं अंदर आ जाती, पीछे से पिता जी कृष्णा-शिवा को वापिस लाकर दादी को देते, की ये ( प्रतिमा) उरु बाहर ही छोड़ आयी। तब मेरा संबंध मेरे  शिवा के साथ कुछ ऐसा था। पहले उन से खेलती थी और अब उन से बातें करने लगी हूँ। 

क्या आप भी अपने प्रभु से बातें करते वक़्त गूंगे हो जाते हैं? आँखें मूंद लेते हैं? भीतर एक सहजता बहने लगती है। धीरे-धीरे आँखें भी बहने लगती हैं। शायद इसी की लिए हम तपते हैं। फिर काई बार बातें भी होती हैं, मन की, सुख-दुःख की, सपनों की, चाहतों की, सब की। बस ऐसे ही हम उनसे एक रिश्ता बना लेते हैं, ,पिता का, माँ का, दोस्त का, या फिर प्रेमी का! यह रिश्ता कोई सा भी हो सकता है। आगे फिर उसी हिसाब से हक़ भी जताते हैं, उन्हें बुलाते हैं। 

एक भाव बन जाता है। और हमारे प्रभु तो भाव की ही भूखे होते हैं। मौन रह कर मन के आंगन में बातें होती हैं। अहंकार (ego) वहीं चौखट पर रो देते हैं, उसे भीतर आंगन में आने की इजाज़त नहीं। एक बार के लिए शरीर भी खरं, केवल सहज भाव रहता है। यही मंदिर है। 

जहां शोर हो, मन भटकता रहे, केसर-चंदन  रहे, वह भवन हुए। उस भवन को मंदिर हम बनाते हैं। यह काम शिल्पी या मूर्तिकार नहीं कर सकते। यह भाव की भक्ति है। जहां गूंगा हो जाने की सहजता आ जाए।     

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