चाय की गुमटियां इंतज़ार कर रही हैं
की जल्द आ जाए वो बतियाती सुबह
जब टपरी खुलती है, स्टोव सुलगता है, हत्थे वाली भगोनी आंच पे चढ़कर चाय की खुशबुएं उड़ाती हुई आसपास को इकट्ठा कर देती है, गिलासों की टनटनाहट एक हुजूम के जमा होने की जमीन तैयार कर देती है। इस नज़ारे का अपना सुकून है, यहां चुस्कियां लगाने वालों का अपना इत्मीनान है। आड़े तिरछे पत्थरों पर, टूटी स्टूलों पर या तीन के डब्बों पर बैठकर जब लोग चाय सुड़कते हुए देश -दुनियां को चलाने का-सा भाव देते हैं, वहां यह सब अटपटा नहीं लगता।
इन दिनों कई गुमटियों पर सन्नाटा पसरा है। इंसानी कदमों के निशान तक मिटा दिए समय की धुल ने। बातें ठिठकी हुई और लोग घरों में बंद। बड़ी शिद्दत से उस सुबह का इंतज़ार है जब चाय की भगोनी भाप उड़ाएगी और कटिंग चाय की आवाज़ें गूंजेंगी। यार बतियाएंगे, यारियां जमेंगी। बातें बह निकलेंगी।
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