बीता साल
क्या खो दिया, क्या बदल गया
हम कड़ियों से आसपास में जुड़े हैं। अकेला जैसा कुछ होता ही नहीं है। जो है, किसी न किसी से मिलकर और आखिरकार सबसे मिलकर ही होता है। इसलिए परवाह के दायरे सीमित नहीं होने चाहिए। हमारी अपनी सुरक्षा दूसरों की परवाह से बेहद गहरा जुडी हुई है।
रास्ते के बीच से पत्थर हटाने वाले संस्कार बेहद ज़रूरी हैं। गहरे खुले गड्ढे के बाजू में से निकल जाने की जगह, उसे ढकने की फिक्र होना ज़रूरी है। हमारी वजह से कहीं किसी को कोई होगी, भाव का फिर से आना। अतः सबकी ख़ुशी की प्रार्थना, सबके स्वस्थ की कामना को व्यवहार लाना है।
ये जो महामारी फिर से आई है, पिछली बार की तरह इस बार भी कई सारे सबक लेकर आई है। कोरोना जब विदा लेगा महसूस होगा की क्या कुछ बदल गया है - हमारी जिंदगी में, हमारे आसपास, हमारे भीतर। और अभी जो समय है, यह सजग रहने की चेतावनी दे रहा है।
किस कदर मज़बूती खो दी है हमारी जिंदगी की नाव ने, समाज ने कैसी नयी शक्ल ली है, किस तरह की कमियां महसूस करने लगे हैं हम सब, दरकता हुआ इत्मिनान - इसका आंकलन करना है। दुरुस्त करना है।
जब खुली हवा में सांस लेना सहज था, प्रकृति को संवारने का मौका मौजूद था, तब हमारी मसरूफियत ने हमारे ध्यान को कहीं और ही लगा कर रखा हुआ था। आज उसी कंक्रीट जंगल में जब कैद होने का दुबारा मजबूर होना पड़ रहा है तब भी क्या हमारी भौतिकता और उपभोक्तावाद का ध्यान भांग हुआ?
ये बंदिशें याद दिलाती हैं प्रकृति की कीमत और उसकी ताकत। यह समय फिर से सीखने के अंदाज़ में आ गया है। जो पिछली बार सीखे, इस बार तो ज़रूर सीखना होगा।
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