क्यों गुमसुम हो जाते हैं लोग?


क्यों गुमसुम हो जाते हैं लोग? मन के हाथ - पैर समेट कर यूं बैठ जाते हैं। बस खुद में ही खो जाते हैं। इनसे आप मुलाक़ात भी नहीं कर सकते क्योंकि ये किसी को करीब आते देख या तो दूर चले जाते हैं या एक खोल-सा ओढ़ लेते हैं ताकि कोई इनके गुम हो जाने को ना जान सके।

 

क्या लुट जाता है, या क्या छिन जाता है ऐसा जो जीने का मन नहीं होता। शायद सपने! यकीनन सपने ही। जिंदगी जीने का हौसला सपनों में ही तो छिपा होता है। जिस दिन सपने खो गए, छिन गए या छीन लिए गए उस दिन राहें बेमानी हो जाती हैं। यूँ रास्तों की अपनी कोई मंज़िल तो होती भी नहीं, उन्हें तो राहगीर ही गुलज़ार करते हैं। जो अगर चलनेवाला ही सहम जाए - ठहर जाए, गुमसुम सा खोने लगे तो कौनसी राहें और कहां की मंज़िलें।

 

जब एक नन्हा सा सपना हम जिंदगी की मिटटी में बोते हैं और वक़्त होते ही जब वो आँखें खोलता है, तो एक नयी भरोसे की कोपल मुस्कुराती है। और इसी सपने के दम पे हम जीवन की राह पे उठाने वाले हर कदम को उत्साहित रखते हैं। पर जब भी यही सपने मुरझाने लगते हैं तो मन बंजर होने लगता है।

 

सूखी आँखें, पथराया मन जहाँ भी देखें, उनके सपनों की क्यारियां तैयार करवाने में हौसलों की मदद करें। पर, पर, पर मन की मिटटी खुद ही पलटनी होगी।

 

जीने का मकसद, आत्मविश्वास का आधार सपने ही तो देते हैं। कई बार बिक जाते हैं ये सपने और ये बहुत मेहेंगे बिकते हैं। बिकते हैं ये हालातों के हाथों, झूठी शानों के हाथों। जो बेच देता है वह अपनी साख, जीने का उत्साह, सबकुछ खो बैठता है।

 

आइये, दुआ करते हैं, कि सबकी आँखों में हर मौसम एक सपना पलता रहे और उसकी क़द्र भी बनी रहे। ,

 

जो खुद को करीब रखना है तो सपनों को दूर ना होने दें।


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