अभी जब मैं तुम से मिल ही रही हूँ तो लगता है सबकुछ कितना खूबसूरत है। मन कह रहा है, भरपूर जी लूं इस वक़्त को, क्यूंकि इन मुलाकातों की उम्र बहुत छोटी होती है। कभी महीने चलती है, कभी कुछ हफ्ते, और आजकल तो कुछ दिन या बमुश्किल कुछ घंटों में ही सिमट के रह गयी है।
जब हम मिल रहे होते हैं, एक-दुसरे को जान रहे होते हैं, जबरदस्त दिलचस्पी दिखती है दोनों को ही। फिर न जाने ऐसा क्या हो जाता है ... सब खत्म !
क्या बोरियत इतनी बलवान है? फिर चाहे व्यक्ति कितना ही पसंदीदा क्यों न हो, हमे वह अब और नहीं चाहिए। क्यूंकि अब मन को फिर से एक नए 'नए' की चाहत है।
आजकल नया बहुत जल्दी पुराना होने लगा है। ऊब हावी है। बस इसलिए मेरा मन तुम्हारे ' न जाने कब ' चले जाने के ख्याल से उस बच्चे की तरह व्याकुल रहता है जो किरायेदार के बच्चे की साइकिल चला रहा है जब किरायेदार अपने बच्चे के साथ बाजार गया हुआ था।
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