कितनी सुलझी हुई सोंच से हमारे संस्कारों में दूसरों के लिए मनौतियां मानना या दूसरों के हिट की प्रार्थना करना शामिल किया गया है। दूजे के हित को ही संस्कार बना दिया।
हम में से जाने कितने लोग हैं, जो व्रत -उपवास को नकारते या कभी उसकी खिल्ली भी उड़ाते हैं, ख़ास तौर पर सुहाग के व्रतों की। देखा जाए तो बिना कुछ खाये पीये रहना और सारी रीतों का बेहद संजीदगी से पालन करना एक विश्वास का प्रतीक है।
व्रत के सामाजिक स्वरुप को लेकर पुरुषों के दोहरे रुख सामने आते हैं। एक परिचित का किस्सा है। एक समय ऐसा था की वे सुहाग के व्रतों का उपहास किया करते थे। फिर विवाह के कई साल बाद एक दिन बेहद उत्साहित हो सुनार के यहाँ जाते दिखे। कारण था पत्नी के लिए तोहफा लेना। पूछने पर मुस्कान के साथ शाब्दिक रोष प्रकट करते हुए बोले, "अरे, आज व्रत रख रही है पत्नी जी हमारे लिए, उनके लिए तोहफा ....। "
पत्नी को आपकी लम्बी आयु की प्रार्थना करते देख ख़ुशी तो बहुत होती है ...
यही सच सारी मनौतियों और प्रार्थनाओं के लिए है। इसकी बुनियाद में है भलाई की चाह और साथ है मुराद पूरी होने का अटूट विश्वास।
आप किसी की दुआओं में हैं, ये अहसास ही मन को कितना मजबूत बनाता है।
जब किसी शक्ति के सामने सर झुकता है, तो अक्सर अपना ही कष्ट याद आता है, अपने ही संधान की आरजू दिल से निकलती है। लेकिन स्त्रियों के जीवन में पति, भाई, बच्चे पहली पायदान पर होते हैं। वे तो अनजान के लिए भी प्रार्थना कर बैठती हैं। सारा जीवन जो रिश्ते रचती है, रिश्ते जोड़ती है, रिश्तों को संभालती है, उसे इनकी अहमियत सबसे ज़्यादा मालूम है। इसलिए किसी की लम्बी उम्र के लिए एना-जल बिना रह पाती है, बच्चे हों या जीवनसाथी।
केवल स्त्री ऐसा कर सकती है। रिश्तों का मोल वही जानती है।
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