अगर कोई दुखी है, परेशान है, बेचैन है, अकेला है और ऐसे में हम ये उम्मीद करें की वही अपना हाथ बढ़ाये और मदद मांगे। मुझे लगता है हमे अपने इस सोच / स्वभाव में बदलाव लाने की जरूरत है। कोई रातों रात अकेला नहीं हो जाता। एक लंबी लड़ाई अपने ही भीतर वो खुद उड़ता है। अपने अंदर उभरते तूफ़ान में डूबता - उतरता है। कभी आस मिलती है, तो सतह पर आकर सांस ले लेता है। आस कभी किसी इंसान में मिलती है। वहां भरोसा जागता है। उसे कश्मकश से निकलने की उम्मीद होती है। जिसे आस न मिले वो फिर निराशा पाकर डूब जाता है। यही कश्मकश चेहरे की ख़ामोश मुस्कुराहटों में बादलों के पीछे रौशनी की तरह छुपती - निकलती रहती है।
हर व्यक्ति कभी ना कभी सूनेपन या शून्यता में घिरता है। उसके पास भरोसेमंद सहारे हों, तो यह सूनापन रात की तरह बीत जाता है। जिसके पास ना हो, उसके जीवन में रात ठहरने लगती है। उसे सहारे की तलाश में बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। आस दिलाना और आसरा बनने में बहुत बड़ा फर्क है।
अंधेरे रौशनी के आष्वासनों से दूर नहीं होते। बेचैन इंसान को बातें नहीं बैहला सकती। एक लम्बा सिलसिला चाहिए भरोसा बनाने के लिए।
जो चुटकियों में पल बन जाते, तो इतनी खाइयां होती ही नहीं। अधिकांश लोग तो किसी के मन के अंधे कुओं में झांकने का साहस भी नहीं जुटा पाते।
कोई आपका एतबार करे, ये भी एक रुतबा ही है। इस दर्जे को पाना आसान नहीं है। जिनके पास पासदार लोग होते हैं, उनकी दुनियां में रौशनी की उम्मीद कभी खत्म नहीं होती।
हर रोज़ दुआ करनी चाहिए की जिन्हे हम जानते हैं, जिस किसी ने भी इस ‘उर्वी ‘ पर कदम रखा है, उसके पास उजालों की कमी कभी ना हो।
रातें आएं, भले उस दौरान अंधेरा बैचैन भी करे, तो भी सबके पास सुबह के इंतज़ार का सब्र हो। रौशनी मिल ही जाएगी, यह इत्मीनान हो और ऐसे सितारों का भी यकीन हो, जो रात को पूरी तरह काला होने से रोक देंगे।
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