त्योहार, मनाएं पूरी शिद्द्त से
बोली, खान-पान, पहनावे की तरह पर्व भी हमारी पहचान बताते हैं। खासकर की भारत, जहां मील चलते ही सब बदल जाता है, भाषा, रसोई, वेशभूषा, सब, वहां भारतवासियों के घर - आंगन में मनाये जाने वाले त्योहारों की सूची बहुत लम्बी है। और यही कारण भी है उनकी जिंदादिली का। मस्त हो कर मेहनत फिर पूरे मन से अपने त्योहार के लिए तयारी करना। पर्व मनाने के लिए मन को तैयार करना ज़रूरी है। यह एक गंभीर अवसर है। जब बड़े त्यौहार को सम्मान देने में अरूचि दिखाते हैं तो छोटों को कौन इनकी अहमियत समझायेगा?
पर्व के मायनों को समझे बिना, इन्हे मनाएंगे कैसे? निभाएंगे किस तरह? जो चला आ रहा है सदियों से, उसे सदियों आगे तक कैसे संभालेंगे? कितनी ही रीत - रिवाज़ जाने कहां गुम हो गये हैं। जो माहौल में उत्सव घोल दे, वही लुभाती हैं, मनाई जाती हैं और आगे तक बनी रहती हैं। इनकी मोहक झलक में परदेसी भी खुद को डुबो देने का अवसर नहीं छोड़ते। यूँ ही तो त्योहारों को मनाने का दायरा बड़ा हो जाता है।
आज रक्षाबंधन है। भाई-बहन का त्योहार जिसे पूरा परिवार पूरे उत्साह के साथ मनाता है। यह भाई दूज से अलग है। एक में बहन मायके आती है तो दूसरे में भाई को निमंत्रण दिया जाता है। स्नेह, प्यार और दुलार भरपूर होता है। तभी तो यह रस्म निभाई जाती रही है। खुद के अस्तित्व को निखारने के लिए जड़ों की मज़बूती बेहद ज़रूरी है।
हमारे सभी त्योहार, जश्न मनाते हैं रिश्तों का, प्रकृति का। हम जहां कहीं भी हों, खुद को अपनी मिटटी के पास महसूस करते हैं। ये रस्में हमे अपने देश के माहौल - मौसम में लौटा लाते हैं। ये रिश्ते जिंदगी को खुशनुमा बनाते हैं। जब कभी किसी कारण रूठ गए, सूख गए या खुरदरा गए तो फिर से लगाव का लेप लगाने से वापस खिल उठेंगे।रिश्ते-नाते कहीं नहीं जाते, बस भागमभाग से उठी धूल उन पर बैठ जाती है। फिर आता है सावन, बौछारें सब धो डालती हैं। बस मंशा होनी चाहिए। सूख चुकी डालियां भी हरिया जाती हैं। इसलिए सिलसिला ये सदियों तक यूं ही चलना चाहिए।
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