दबी छिपी ज़िन्दगी में रवानी का रविवार


ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, कुछ साल ही तो हुए हैं। बस्तियां इस तरह फ़ैल गयी हैं दूर दूर तक, हर कहीं -हर जगह। एक दिन सोंचा चलो अपने शहर के नए तेवर ही देख लूं। घूमने निकला तो सिर्फ इमारतें नज़र आईं, उनमे घर कहीं छिपे हुए होंगे। बाहर हर जगह दुकाने हैं, जहाँ अलग अलग चीज़ें खरीदी बेचीं जा रही हैं। 

महंगी ज़मीन पहले ही दालान निगल चुकी थी।  घर के बाहर छोटी जगह, जिसे पोर्च के नाम से पुकारा जाने लगा था, कुछ समय पहले तक कहीं-कहीं नज़र आ जाती थी। लेकिन अब तो वहां भी दुकाने निकाल दी गयी हैं। यह सोंचकर की चलो इतने में ही चलो दो पैसे की आमदनी तो हो जाएगी। खुद की दूकान न चली तो किराए पर ही चढ़ा देंगे। मुख्या सड़क तो पहले ही शोरूम्स और मॉल्स की चमक-दमक में घरों की खुशबू खो चुकी थी, अब कॉलोनियां और अंदरूनी गलियों को भी जैसे दुकानों का दीमक लग गया है। दुकानों के आगे दुकानें, दुकानों के पीछे दुकानें, दाएं-बाएं हर जगह दुकानें ही दुकानें।  जहां दुकाने नहीं, वहां पेइंग गेस्ट, हॉस्टल, मेस, टिफिन सेंटर के बोर्ड चस्पा हैं। तरह -तरह के रंगों में सजे प्रोडक्ट, खूबसूरत कपडे पहने गुड्डे-गुड़िया (मैनिक्विन), तेज़ रौशनी, आमंत्रण देता संगीत हर जगह से एक ही बात सुनाई पड़ती है : आईये, कुछ खरीदिये। 

 

सोंचने लगी अगर इसी तरह दुकानें घरों को निगल गयी तो लोग रहेंगे कहां ? और अगर हर आदमी विक्रेता हो गया तो खरीदार कहां से ढूंढें जायेंगे? सड़क (दुकानों ने गलियों और कॉलोनियों से भी बस्ती या मोहल्ले का सम्बोधन छीन ही लिया है) पर इतनी चहल -पहल कि ऊपर नज़र ही नहीं जाती। मैं बेचैन थी, इसलिए उन दुकानों पर देखने का साहस जुटाया। कुछ जगह पाया ऊंची-ऊंची गैलेरी है, लेकिन पूरी तरह जालियों से ढकी। उनके पीछे दो नन्हे हाथ नज़र आये।  धुँधला सा चेहर भी दिखाई दिया, आँखे सड़क पर हैं, लेकिन उदासीन, मायूस और अकेलेपन से घिरी। सामने कि ओर भी ऐसे ही कुछ चेहरे, जिन पर बचपन कि अल्हड़ खिलखिलाहट कि जगह प्रौढ़ गंभीरता जड़ी हुई थी। इस भीड़भाड़ में एक घर दिखाई दिया, जिसके आंगन में कुछ हरी पत्तियां और लाल -पीले फूल थे। छोटे से आंगन के बाद मुंडेर पर टी बुगुर्ज नज़र आये, जिनमे दो महिलायें थी, लेकिन संवादहीन। कभी सड़क से गुजरती गाड़ियों के कारवां देखते तो कभी दुकानों से बड़ी-बड़ी थैलियों में जाने कौनसी खुशियां खरीदकर निकलते लोगों को। 

 

सोंचने लगी, ना बचपन खिल पा रहा है, ना बुढ़ापे को तसल्ली है। बस खरीदी-बिक्री और किराए के बीच कहीं सबसे पहले हमने इन्ही दो चीज़ों का हिसाब तो नहीं चुकता कर दिया? 

 

भारी मन से कॉलोनी के पार्क में गयी। कुछ बच्चे खेलते नज़र आये। अच्छा लगा, लेकिन देखा बच्चे जिन बड़ों के साथ आये थे, वे पार्क में होकर भी वहां नहीं थे। कोई फ़ोन पर लगा है तो कोई बेंच पर इस तरह बैठा है मानों बच्चे को घुमाने नहीं, दफ्तर कि कोई मोती फाइल निबटाने आया है। 

 

मन भारी हो गया। अब रोज़ उसी सड़क से निकलना मुश्किल हो गया। बाजार में चलते-फिरते लोग नज़र ही नहीं आते। ऊपर कि मंजिलों में जालियों के पीछे खड़े बच्चे और बेचैन बुजुर्ग ही दिखाई देते। फिर रविवार आया। गाड़ियों कि भागदौड़ थोड़ी थमी हुई थी। सड़क से गुजरी तो यकीन नहीं हुआ। एक कोने पर बच्चे साइकिल टेढ़े कर क्रिकेट खेल रहे थे। अंदर कि लाइन में लडकियां बैडमिंटन खेलक्ति नज़र आयी। कुछ यूं ही दौड़ भाग रहे थे। लगा किसी पार्क में आयी हूं, जहां ज़िन्दगी खिलखिला रही है। ख़ुशी हुई। लगा चलो संडे के संडे ही सही ,ज़िन्दगी कि रवानी अब भी बरकरार तो है। इसे ही संभाल लिया तो बहुत है। 


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