बचपन में प्रेमचंद की कुछ कहानियां हम सबकी हिंदी की किताबों का हिस्सा ज़रूर रही हैं। उस वक़्त वो लम्बी कहानियां बोर लगा करती थीं। इतने गहरे भाव, वो भी इतनी शुद्ध हिंदी में हम शहरी बच्चों को कहाँ समझ आते .
गाँव का माहौल शहरी बच्चों को रास भी नहीं आ पाता। और फिर थी भी इतनी दुःख भरी, बस परीक्षा दी और भूल गए। प्रेमचंद की कोई भी कहानी उठा लें आप, जैसे की 'कफ़न'। हो सकता है की आप इसे भी भूल गए हों। तो मैं थोड़ा बता देती हूं। पटकथा की शुरुआत होती है की सर्दी की एक रात में माधव अपने पिता घीसू के साथ घर के बाहर अलाव पर आलू सेंक रहे होते हैं। उनकी झोंपड़ी से माधव की पत्नी बुढ़िया की प्रसव पीड़ा में चीखने की आवाज़ें आ रही होती है। घीसू अपने बेटे से कहता है की लगता है बचेगी नहीं, जा बहु को देख आ। इसपर पति माधव अपनी पत्नी के लिए कहता है की वो जल्दी से मर क्यू नहीं जाती। माधव अपनी पत्नी को उस हालत में देखने से कतराता है। साथ ही इसका भी दर है की जो वो अंदर गया तो बापू इधर दो-चार आलू ज्यादा दबा लेंगे।
प्रेमचंद की कोई भी कहानी उठा लें आप, जैसे की 'कफ़न'। हो सकता है की आप इसे भी भूल गए हों। तो मैं थोड़ा बता देती हूं। पटकथा की शुरुआत होती है की सर्दी की एक रात में माधव अपने पिता घीसू के साथ घर के बाहर अलाव पर आलू सेंक रहे होते हैं। उनकी झोंपड़ी से माधव की पत्नी बुढ़िया की प्रसव पीड़ा में चीखने की आवाज़ें आ रही होती है। घीसू अपने बेटे से कहता है की लगता है बचेगी नहीं, जा बहु को देख आ। इसपर पति माधव अपनी पत्नी के लिए कहता है की वो जल्दी से मर क्यू नहीं जाती। माधव अपनी पत्नी को उस हालत में देखने से कतराता है। साथ ही इसका भी दर है की जो वो अंदर गया तो बापू इधर दो-चार आलू ज्यादा दबा लेंगे।
आगे कहानी में लेखक बताते हैं की बाप और बेटे दोनों कितने आलसी हैं। काम बहुत हैं अपर ये दोनों करना ही नहीं चाहते। वैसे उसकी प्रसिद्धि भी ऐसी है की कोई उन्हें काम देता भी नहीं। और आलस के पीछे उनकी सोंच ये थी की जो व्यक्ति मेहनत करता है उसकी हालत भी हमसे कुछ ख़ास बेहतर तो नहीं लगती। ऐसा ही है समाज।
खैर, अगली सुबह बुढ़िया चल बसी। माधव और घीसू उसके क्रिया कर्म का इंतज़ार कर रहे हैं। इधर उधर से पैसा मांगकर इकट्ठा कर रहे हैं। कोई न चाहते हुए भी दो रुपया उनकी तरफ फेंक देता है। कोई लकड़ियां वगैरह दे देता है। कोई थोड़े और वैसे दे देता है। कुल पांच रुपये के साथ दोनों बाप-बेटे बाजार जाते हैं कफ़न खरीदने।
अब एक सवाल उनके जहन में आता है की जो मर गया है उसे कपडे की क्या ज़रुरत? कफ़न को तो जलना ही है। इसलिए क्यों न हम इन पांच रुपयों का सही इस्तेमाल करें। तो अब दोनों उन पैसों का 'उचित' उपयोग करने पहुंचते हैं मधुशाला में और मनपसंद का भोजन भी करते हैं। कोई बीस आएल पहले ठाकुर की शादी में भोज में खाया था वैसा खाना आज खाया उन दोनों ने बुढ़िया के कफ़न के पैसों का। बाजु में एक भिखारी दोनों बाप-बेटे की खाना कहते हुए देख रहा था तो घीसू उसे भी कुछ बची हुई पूरी दे देता है ये कहते हुए की जिसकी मेहनत की कमाई है वो तो चल बसी। उसको आशीर्वाद दे। वो जाते-जाते भी हमारी सबसे बड़ी इच्छा पूरी कर गई। उसे पका स्वर्ग मिलेगा। रानी बनेगी वो स्वर्ग की।
ऐसी घटनाओं पर हैरानी होती है। लेकिन यह भी अहसास होता है की हालात हमे कैसे मजबूर बना देता है। यह कहानी कई रूपों में हमारे समाज के मानसिक खोखलेपन का गहरा अहसास कराती है। इसे मुंशी प्रेमचंद ने 1936 में लिखा था। आपको नहीं लगता कीआज 2020 में भी हमारे बीच कई माधव और घीसू मौजूद हैं। हो सकता है माधव आज बारहवीं पास हो पर गाओं में उसके लायक कोई नौकरी नहीं हो। आज भी बुढ़िया को डॉक्टर नसीब ना हो। और किसान भाई आज भी ज़मींदारों के खेत में पसीना बहा रहे हों।
मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रही की बीते दशकों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। लेकिन रफ़्तार बड़ी धीमी रही, ये तो आप भी मानेंगे। जो यह पढ़ रहे हैं वो सक्षम ज़रूर होंगे। क्यों का अपनी रोजमर्या की जिम्मेदारियों में कुछ चीज़ें जोड़ लें ताकि इस बदलाव की गाड़ी को कुछ गति हम भी दे सकें। वह जिम्मेदारियां क्या हो सकती हैं ये हम सब जानते ही हैं। जो अगर हम ऐसा कर पाए तो प्रेमचंद की यह कहानी पुराने ज़माने का गया-बीता किस्सा लगने लगेगा, और ऐसा ही लगना चाहिए।
आगे कहानी में लेखक बताते हैं की बाप और बेटे दोनों कितने आलसी हैं। काम बहुत हैं अपर ये दोनों करना ही नहीं चाहते। वैसे उसकी प्रसिद्धि भी ऐसी है की कोई उन्हें काम देता भी नहीं। और आलस के पीछे उनकी सोंच ये थी की जो व्यक्ति मेहनत करता है उसकी हालत भी हमसे कुछ ख़ास बेहतर तो नहीं लगती। ऐसा ही है समाज।
खैर, अगली सुबह बुढ़िया चल बसी। माधव और घीसू उसके क्रिया कर्म का इंतज़ार कर रहे हैं। इधर उधर से पैसा मांगकर इकट्ठा कर रहे हैं। कोई न चाहते हुए भी दो रुपया उनकी तरफ फेंक देता है। कोई लकड़ियां वगैरह दे देता है। कोई थोड़े और वैसे दे देता है। कुल पांच रुपये के साथ दोनों बाप-बेटे बाजार जाते हैं कफ़न खरीदने।
अब एक सवाल उनके जहन में आता है की जो मर गया है उसे कपडे की क्या ज़रुरत? कफ़न को तो जलना ही है। इसलिए क्यों न हम इन पांच रुपयों का सही इस्तेमाल करें। तो अब दोनों उन पैसों का 'उचित' उपयोग करने पहुंचते हैं मधुशाला में और मनपसंद का भोजन भी करते हैं। कोई बीस आएल पहले ठाकुर की शादी में भोज में खाया था वैसा खाना आज खाया उन दोनों ने बुढ़िया के कफ़न के पैसों का। बाजु में एक भिखारी दोनों बाप-बेटे की खाना कहते हुए देख रहा था तो घीसू उसे भी कुछ बची हुई पूरी दे देता है ये कहते हुए की जिसकी मेहनत की कमाई है वो तो चल बसी। उसको आशीर्वाद दे। वो जाते-जाते भी हमारी सबसे बड़ी इच्छा पूरी कर गई। उसे पका स्वर्ग मिलेगा। रानी बनेगी वो स्वर्ग की।
ऐसी घटनाओं पर हैरानी होती है। लेकिन यह भी अहसास होता है की हालात हमे कैसे मजबूर बना देता है। यह कहानी कई रूपों में हमारे समाज के मानसिक खोखलेपन का गहरा अहसास कराती है। इसे मुंशी प्रेमचंद ने 1936 में लिखा था। आपको नहीं लगता कीआज 2020 में भी हमारे बीच कई माधव और घीसू मौजूद हैं। हो सकता है माधव आज बारहवीं पास हो पर गाओं में उसके लायक कोई नौकरी नहीं हो। आज भी बुढ़िया को डॉक्टर नसीब ना हो। और किसान भाई आज भी ज़मींदारों के खेत में पसीना बहा रहे हों।
मैं ऐसा बकलोल नहीं कह रही की बीते दशकों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। लेकिन रफ़्तार बड़ी धीमी रही, ये तो आप भी मानेंगे। जो यह पढ़ रहे हैं वो सक्षम ज़रूर होंगे। क्यों का अपनी रोजमर्या की जिम्मेदारियों में कुछ चीज़ें जोड़ लें ताकि इस बदलाव की गाड़ी को कुछ गति हम भी दे सकें। वह जिम्मेदारियां क्या हो सकती हैं ये हम सब जानते ही हैं। जो अगर हम ऐसा कर पाए तो प्रेमचंद की यह कहानी पुराने ज़माने का गया-बीता किस्सा लगने लगेगा, और ऐसा ही लगना चाहिए।
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