स्त्री हूँ, हारना मना है


शेक्स्पियर ने कहा था की दुनियां एक रंगमंच है। जहां हम सब इस जिंदगी नाम के नाटक में कई तरह के किरदार निभाते हैं। और अगर कोई सबसे अच्छा अभिनय करता है तो वो हैं स्त्री। आपने भी अपने आसपास महिलाओं को खुश रहने का नाटक करते देखा ही होगा जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है। सोंचिये और ज़रा समझियेगा की ससुराल से अपने मायके लौटी नयी - नयी शादी हुई अपनी बेटी से जब एक पिता सर पर हाथ रख कर पूछते हैं कि सब ठीक तो है ना, वहां कोई दिक्कत तो नहीं! तो ख़ुशी से झूमती हुई बेटी अपने आंसुओं को मुस्कराहट में बदल कर तुरंत कहती है कि पापा आपकी  राजकुमारी अब तो वहां कि महारानी बन गयी है। पिता अपनी बेटी कि बात सुनकर चैन कि सांस लेता है। माँ ख़ुशी से फूली नहीं समाती और बड़े इतराकर कहती है मैंने कहा था ना सब अच्छा होगा। 


ये नादान - सी बेटियां ना जाने कब बड़ी होकर माँ-बाप को खुश रखने के लिए खुश होने का नाटक ताउम्र करती हैं। खैर ...... कलाकार को सिखाया जाता है कि निजी जीवन में कुछ भी हो रहा है लेकिन जब मंच पर होते हैं तो बस एक कलाकार ही होता हैं। अभिनय कि यह क्षमता ना जाने महिलाएं कहां से सीख कर आती हैं।  शायद माँ कि कोख से ही। ये गुण ही तो होता है, एक महिला जब अपनी भावनाओं के आवेग को रोककर एक पत्नी और बहु का किरदार निभाती है। कई मौके आते हैं जब वह भी चिल्लाना चाहती है, लेकन उस समय उसका किरदार इसकी इजाज़त नहीं देता। वह मन कि मारकर एक बेहतरीन अदाकारा बन जाती है। 


कब कहां, कैसे आवाज़ का इस्तेमाल करना है इसमें भी महिलाओं से माहिर कोई नहीं होता। वे जानती हैं कि किससे बात करने में आवाज़ का पिच कितना रखना है। कहां अपनी बात मनवाने के लिए पिच बढ़ाना और कहां मौन हो जाना है। ये गुण उनके ना जाने कितने बिगड़े काम बना जाता है। अब आप ही बताइये इस से सशक्त अभिनय क्या होगा ?    


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