हमारे अंधेरों को उसके उजाले


पर्व उत्सवी रूप में आते हैं। उत्साह से मनाये जाते हैं। उनका एक अर्थ भी होता है, जिसके मायने जीवन को उत्साह-भरा और उत्सवी बनाते हैं। 

जब तम से भरी अमावस की रात आती है, तो धरती जैसे आकाश का आईना बन जाती है। नदियां अंधेरी, धरा अंधेरी। जैसे रात ने किसी गुफा में प्रवेश कर लिया हो। ऐसी ही हो जाती है कभी-कभी जीवन की सूरत भी। ना ख़त्म होने वाली अमावस की रात जैसी। 

लेकिन सबके अंधेरे एक जैसे नहीं होते ........

इस अमावस के तम का रूप अलग है। उसमे गति है। बीत जाने, बीतते जाने, गुजर जाने का भाव है। उम्मीद की मशालें हैं। 

यही उम्मीद सन्देश है। दीप के रूप में एक जरिया है, हर तम को हारने का। 

देखा जाए, तो दीपावली की रात, अमावस होने के बावजूद एक सुनहरी चूनर ओढ़े आती है। दीपमल्लिकाओं की शिखाओं से बनी चूनर। दीपावली की रात को दूर-दूर तक फैला उजालों का साम्राज्य बताता है कि मिलकर लड़ें, जुटकर खड़े रहें, हौसलों पर अडिग रहें, तो कोई भी अँधेरा टिका नहीं रह सकता। जब तक एक भी दिया रोशन हो, अंधेरे के लिए चुनौती कायम रहेगी। 

उजाले के इस स्वरुप से अपने पुराने वास्ते का ध्यान करें, तो डीप पर्व पर दीये के महत्व का स्मरण हो उठेगा। किसी समय जब रास्तों पर अन्य किसी रौशनी का आसरा नहीं होता था, तो रात में हर राहगीर अपनी रौशनी साथ लेकर चलता था - दीये के ूप में या लालटेन के रूप में। मालूम था, अपने तम से खुद ही झूझना होगा। अंधेरा होगा, कुछ सुझाइये नहीं देगा, सो खुद के पास उजाला होना ही चाहिए। 

कितनी सामान्य सी बात है। वही याद दिलाता है दीपक। उजाले की सूरत। अंधेरे को हारने का जरिया। परेशानियां, समस्याएं, उलझने, अड़चने, निराशा, हताशा - अंधेरे कई रूप में जीवन को घेर लेते हैं। तब पास होने ही चाहिए उम्मीद के उजाले। हिसलों का प्रताप। रौशनी का ओज। प्रयास की कांति। झूझने की लालिमा। विजय की दीप्ति। 

हर अंधेरे को दूर कर पाने के लिए अपने सूर्या-सा उपहार दिए है इश्वर ने दीपक के रूप में। यही इस पर्व का प्रतिरूप भी है, सूचक भी है। इसके आलोक में पर्व के अर्थ को स्वीकारें। जीवन संवारें।            

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