बरसने लगूं बेपरवाह




ख़्वाबों की गलियों में टहलने निकली ही थी की अल्लहड़ बूंदों की तीखी आवाज़ सुन हड़बड़ाई आँखों ने द्वार जो खोले तो स्वागत हुआ उस नमी से जो भाप बनकर खिड़की पर बन फिसल रहे थे। काली घटाओं के अंधेरे को चीरने के लिए मेरी आँखों की चमक ही काफी थी। जलन महसूस हो रही थी उन सुर्ख गुलाबी कलियों से जो उन आवारा बादलों से आज़ाद हुए उस रस में नहाई खिलखिला रही थी .., उन हरी पत्तियों से जो उन बरसते लम्हों में और ज़्यादा जीवंत हो रही थी …., बरखा के नशे में झूमती डालियों से। अरे! मेरी खिड़की की पहली पट्टी पे एक नन्ही गिलहरी आकर रुकी है। शायद बारिश की कश लेने में मेरा साथ देने आयी हो शायद। मेरे कमरे की खिड़की टिप - टिप फिसलती बूंदों को बड़ी सहज ही अनुभव कर रही है।

 

धूल गयी है पंखुड़ियां, धूल गयी है पत्तियां, धूल गयी है मेरी खिड़की के कांच और चमकने लगे है उनके बदन … क्या मैं भी धो लूं खुद की आँखों में जमी थकावट की धूल को और ठहर जाने दूँ भीग कर फिसलते लम्हों को …, धो लूं खुद को, कर लून पवित्र फिर जमा लूं पुनः उन बादलों में जहाँ से सैर करूं विशाल फैले हुए नीलम की और फिर अचानक टकरा जाऊं जज़्बातों के पहाड़ से … और बरसने लगूं बेपरवाह उस प्यास पर जिसे भीगने (संतुस्ट होने) की तड़प हो।


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