रिश्ते


 जब हम ढूंढने निकलते हैं तो साफ़ नहीं दिखते पर कभी यूं ही मिल जाते हैं रिश्ते। 

कुछ जुड़ते हैं तो फ़रिश्ते भी बन जाते हैं। और अगर छोड़ा तो कभी कभी साया बन जाते हैं। पर साथ ही रहते हैं।  या सामने या मन में। जब्जिंदियाँ बनी जाती हैं, उसमे ताना -बाना सबके लिए एक जैसा ही होता है। पर होते हैं कुछ ऐसे नाते जो ख़ास शक्ल के ताने-बाने में बने जाते हैं। जो नेमत की तरह मिलते हैं। जो कई जिंदगियों में अहम किरदार में नज़र आते हैं। जिनके पास हैं उनसे इनके होने का इत्मीनान के बारे में पूछें तो वे बताएँगे की ये गहनों जैसे हैं, आपके पास, आपकी अमानत जैसे। 


कुछ रिश्ते फूलों जैसे हैं, पिरोया तो मन की डोरियों में गूंथे, निकल गए तो कहीं और महकेंगे। और कुछ रिश्ते ऐसे हैं जो ना नेमत हैं, ना फूल, लेकिन बड़े भाते हैं, बार बार अपनी और खींचते हैं। ना बहुत करीब हैं, और दूर तो कभी हुए ही नहीं, होते भी नहीं। हमारे मन के धागों में उलझते सुलझते रहते हैं बस। ये वो नाते हैं, जिनके भरोसे पे हम अनकही आवाजें लिखते हैं। लिखते थोड़ा हैं, पढ़ा ज्यादा जाता है।             


पर जब भी खामोशी गहराती है तब ये तमाम नाते-रिश्ते एक से दिखते हैं। कुछ कहे बिना ही बन जाते हैं, कहे बिना ही बने रहते हैं। डाली पे बैठी चिड़िया की तरह, पत्तों में कंघी करती हवाओं की तरह, या खिड़की पर टंगे चाँद को शक्ल में, चुप रहने पर ही दिखते हैं। तभी महसूस होते हैं जब मुंह चुप रहता है, और अहसास, अनुभव की जुबान सुनी जाती है। 


पाने पर आकार लेती परछाई की तरह, जरा सा छुआ नहीं की बेशक्ल हो जाते हैं। जी करता है सबको बारी-बारी बैठा लें, फिर ढेर साड़ी बारें करें। सब सुना दें, कह डालें वो सब कुछ जो शायद ना सुना हो उसने।  जो हम चाहते हैं की उसे मालूम हो। और फिर एक इत्मीनान भरी नज़र, स्नेहिल स्पर्श, और हम पूर्ण सा अनुभव करते हैं। 


ऐसे ही तो होता है, ऐसे ही होना भी चाहिए। रिश्ते मन से बनते हैं, निभते हैं और बंधे भी रहते हैं। हमारी जिंदगी की कहानियां गवाह यहीं इन सभी अनुभवों की, अहसासों की।              


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