अपनी ज़रूरतें (मन की, ego की, लाभ की ... आदि ) पूरी करने के लिए दूसरों को नकारते हुए उनके अधिकारों और सम्मान को ठेस पहुँचाना हिंसा ही है। यह भावनात्मक प्रक्रिया है। हम अक्सर आसानी से किसी को भी ठेस पहुँचाने को तैयार हो जाते हैं। ये परायेपन के भाव की वजह से होता है। माँ अपने बच्चे के प्रति हिंसक नहीं होती क्यूंकि उस रिश्ते में परायेपन का भाव नहीं है। तो क्या हमने लोगों को अपनाना छोड़ दिया है ! जी हाँ। आजकल अपनत्व क भाव सिकुड़ता जा रहा है। क्यूंकि धैर्य old - fashioned हो चूका है। हमारी ego वाली आँखें केवल अपना स्वार्थ देखती हैं। अधिकार और सम्मान हम किसी को देना नहीं चाहते, सिर्फ हासिल करना चाहते हैं। मेरे प्रियजनों, सम्मान देने की चीज़ है, कृपया समझिये। सीधा गणित है, आप देंगे - आपको मिलेगा।
'शिक्षित' वर्ग ठेस पहुँचाने में बाकियों से काफी आगे है। हमारे समाज का आधार अहिंसा पर आधारित है। भगवान् महावीर की यही शिक्षा है। हम केवल इसे मंत्रों, प्रार्थनाओं, बातों और भाषणों में गाते हैं, व्यवहार में लाना क्यों भूल जाते हैं? यही दुखद है।
फिर धर्म की मानना कैसे हुई? या खानापूर्ति करना हमने आदत ही बना ली है।
आप सब ने भी यह अनुभव किया होगा, कई बार अहिंसा की व्याकरण बोलने वालों के आचरण में ही हिंसा झलकती है।
हिंसा हो या अहिंसा, दोनों के भाव अंदर से ही आते हैं, बस निमित्त बाहर हो सकते हैं। पर विवेक भी तो अंदर ही रहता है, उसकी बात क्यों नहीं सुनते?
हम भले ही अहिंसा को समझें या न समझें, हिंसा को हम ज़रूर समझते हैं। हमे ठेस पहुंची, हम आहत हुए, हमारा अहंकार क्रोध के रूप में तुरंत उभरकर आता है। कई बार कहा - सुनी थोड़ा आगे बढ़ गयी तो हाथ उठाते भी देर नहीं लगती। क्योंकि मन असुविधा को स्वीकार नहीं करता। ऐसे में चीज़ें (रिश्ते या काम) टूटने की संभावना तेज़ हो जाती है। इस वक़्त , वह जिसका विवेक सोया नहीं है, वह "अहिंसा परमो धर्म " को शब्दों से व्यवहार में लता है और चीज़ें संभाल है। यह संस्कार है। इसे जिसने त्यागा, आखिरकार खत्म हुआ।
जान लीजिये, अहंकार आपको केवल क्षणिक सुख ही दे सकता है, लम्बे समय में यह घातक है।
अहिंसा आत्मभाव है।
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