हम सभी अपनी अपनी यात्रा पे हैं। यही जीवन यात्रा, जहाँ भांति भांति के लोग मिलते हैं और बिछड़ते भी हैं। बिछड़ने पर हम उदास हो जाते हैं। हम यह नहीं सोंच पाते की उनकी भी अपनी यात्रा है, संयोग से वे कुछ समाया के लिए हमारे रस्ते से होकर निकल गए। जब तक थे सहयात्री थे। कुछ ऐसा ही होता है ना रेलगाड़ी में भी। आइये इस से जिंदगी का फलसफा भी समझते हैं।
एक अनुभव --
रेलगाड़ी बढ़ती जा रही थी। कितने लोग थे? कुछ यात्री उतर गए थे। कौन कहाँ उतरा? इतना सब याद नहीं आ रहा पर इतना याद है की एक आंटी थीं, वें जब भी कुछ खाती, मठरी- नमकीन तो मुझे पूछती ज़रूर थीं। खाना खाते वक़्त भी पूछा। मुझे उन चीज़ों की जरूरत नहीं थीं। सब कुछ थे मेरे पास भी। पर उन्होंने मेरी हमेशा फिक्र की। उनके इस अपनेपन के भाव की वजह से मैं आज तक उन्हें याद कर रही हूं। बड़ा मन करता है की उनकी कोई सेवा का मौका मुझे कभी मिले।
एक लड़का याद आता है जिसके आँखों ने अच्छा खासा आकर्षित कर दिया था। एक तो लगातार देख नहीं सकते, तो नज़रें चुरा के देखती फिर नज़ारे टकरा जाने पर कहीं और देखने लगती, मन भरता ही नहीं। एक बच्चा भी याद आता है, छोटा पर अनोखे सवालों वाला। जब भी कुछ बोलता हम सब हंस पड़ते। जब से चढ़ा था हमारे डिब्बे के सन्नाटों की आवाज़ को शांत कर दिया था उसने। जिसे सोना था वो सो चूका था खाने खा चूका था, चाय पी चूका था। सो अब उस बच्चे की मासूम हरकतें हमे सुकून दे रही थीं। पर उसकी माँ के लिए ये सब बहुत परेशान करने वाला था। न उसे खाने दे, न सोने दे। हमारे हांसे से वो बालक और उत्साहित होकर ज़्यादा मस्ती करने लगता। माँ को गुस्सा आ रहा था पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। माँ फिर मुँह बना कर चुप हो जाती पर ज़्यादा देर तक नहीं वार्ना बच्चा माँ को ऐसे देख सहम कर चुप हो जाता। उसे सहमा हुआ देख माँ को बुरा लगता तो वह मुस्कुराने लगती फिर बच्चे की हरकतें शुरू हो जाती।
मैं सोंच रही थीं की ये सब लोग मेरी यात्रा पूरी होने तक काश ना उतरें।
पर जो मुझे पसंद थे वो उतारते जा रहे थे। और शून्य भाव चेहरों पे लिए, अहंकार से भरे यार अजीब से कुंठाओं से भरे लोग बचे रह जाते। फिर ये यात्रा उबाऊ लगने लगती। फिर लगता है की वें सभी अपनी यात्रा करने ए थे, मेरी यात्रा को मज़ेदार या उबाऊ बनाने नहीं। जो अच्छे ना लगे या जिनके प्रति मेरा ही ध्यान ना गया हो वें भी उतरे ही होंगे पर मेरा उसका ख्याल ना रहा। कुछ लोग मुझे अच्छे लगने लगे, मेरे मन में उन्होंने जगह बना ली इसका मतलब यह तो नहीं की वें अभी मेरे सहयात्री बन गए और मेरे गंतव्य तक मेरे साथ ही रहेंगे।
अब अचानक ख्याल आता है की उन सभी के बाफे में मैंने सोंचा पर क्या मैंने अपने बारें में भी सोंचा की मैंने ऐसा क्या किया की किसी की अच्छा लगा हो, किसी को अपनत्व महसूस कराया हो। क्या पता ऐसा करने पर जो मुझे उदासीन लगे वें भी मुझे पसंद करने लगते। हो सकता था मेरे किसी को पानी या नमकीन पूछ लेने से उसके चेहरे की शून्य भांग हो मुस्कान आ जाती। यह भी संभव था की किसी की कुंठा इसलिए थीं क्यूंकि मैंने ही उनसे दूरी बनाये राखी थी।
हमे क्या करना चाहिए, क्यों करना चाहिए, असल में ताउम्र हम सभी यह सही से समझ पाएं ऐसा मुद्दतों कम ही हो पता है। ऐसा शायद इसलिए क्यूंकि हमारा मन अनेक बाटों के बीच हमेशा हिचकोले ही खाता रहता है। इधर से उधर कुछ ना कुछ सोंचता ही रहता है।
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