क्यूंकि भाव सब कह देते हैं
हमारी बातें, कहने से सुने जाने तक, समझने तक रास्ता तय करती हैं। सामने वाला हमसे राजी हो, ये हमेशा ज़रूरी नहीं। ना ही हम सामने वाले की बातों से सहमत हो पाते हैं हमेशा। कई बार कहने-सुनने-समझने के बीच का फासला ग़फ़लतें बना देता है। और आपसी रिश्ते परेशान होने लगते हैं।
बातों में केवल शब्दों का ही अस्तित्व नहीं होता, भावों की भी अहम भूमिका होती है। अपनी बात कहते वक़्त हमे ऐसा लगता है की सुनने वाला सुन रहा है और सुनकर समझ जाएगा। पर क्या वाकई ऐसा ही होता है? क्या वो सच में समझ जाता है? शायद पूरी तरह नहीं। ऐसा इसलिए क्यूंकि कहने लहजा शब्दों के साथ होता है।
कोई बात, लाड़ या ताने, किसी भी तरह से बोली जा सकती है। कुछ बातें इतनी सपाट तरह से बोल दी जाती हैं, की सीधे चुभ जाती हैं। कहने का अंदाज़, चेहरे का भाव, बोली का लहजा, टोन, सब मिलकर बातों का पूरा मतलब समझाते हैं। तभी तो पुराने लोग वह भी समझ जाते हैं जो कहा ही नहीं।
असल में, ये भाव देख कर ही तो कभी हम चुप रह जाते हैं और कभी बहस कर लेते हैं। फिर आगे यही झगड़ों में बदल जाते हैं, जिनका कोई हल नहीं होता। क्यूंकि समझने वाले ने कुछ समझा और कहने वाले ने तो कह ही दिया जो कहना था उसे।
शब्द भावों के साथ बोले जाते हैं पर भाव तो बिना शब्द, पूरी बात कह देने का सामर्थ्य रखते हैं। क्यूंकि हम सभी को लगभग यह शिकायत तो रहती ही है की हमारी बात ठीक से नहीं समझा गया इसलिए अब भावों पर ध्यान देने की ज़रुरत है। ताकि, जो आप कहना चाह रहे हैं सुनने वाला सुनकर वही समझे।
0 Comments