पहनने -ओढ़ने के सलीके, बोल-चाल का लहजा, काम करने का तौर-तरीका, जीवन के सारे कायदे जिसके मत्थे आते हैं, वह स्त्री ही क्यों है? अपनी जिंदगी जीने के तरीके के चुनाव पर भी मेरा अधिकार क्यों हथियाते हो?
अच्छी लड़की या अच्छी औरत वही है जो पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की बनाई पाबंदियों के अनुसार जिंदगी जीती है। पढाई - जॉब - शादी - बच्चा - परवरिश - ज़िम्मेदारियाँ आदि आदि आदि क्यूंकि इनके ऊपर डाल दी गयी ज़िम्मेदारियाँ तो कभी खत्म नहीं होती (यार सास ने भी भुगता है तो अब बहु को सांस कैसे लेने दे!)
और अगर कोई लड़की या महिला इसे तोडना चाहे तो उसे तिरछी नज़रों से देखने लगते हैं। उस पर टीका-टिपण्णी करना अपना अधिकार मान लेते हैं। फिर अगर कोई शादी ना करना चाहे या शादी के बाद बच्चे ना करना चाहे, या स्वतंत्र रहना चाहे, तब तो कोहराम ही मच जाता है। समाज उसे देशनिकाला भी दे सकता है। पर क्या ऐसा पुरुषों के संदर्भ में कभी सुना है?
फिर भी हैं कुछ महिलाएं जिन्होंने अच्छी मज़बूती से कदम उठाया, सही नहीं लगा तो विवाह नहीं किया। पर समाज के हिसाब से उन्हें अपने तरीके से जीवन जीने का कोई हक़ नहीं और स्वतंत्र रहने का तो बिलकुल भी नहीं। आसपास के लोग अपने बच्चों को उनके पास जाने से रोकते हैं जैसे उनके चरित्र पर मौन आपत्ति जता रहे हों।
स्त्री के व्यक्तित्व पर नियंत्रण करने वाली बेहूदी सोंच की आड़ में संस्कार परोसने वालों पर भी स्वच्छता अभियान चले। इसलिए सबसे पहले आर्थिक आत्मनिर्भरता का मकाम बनाना ज़रूरी है। ये वो कमजोर नब्ज है जिसे दबा दबा के सभी हमसे अपनी बात मनवा लेते हैं।
महिला हो तो कोई सौम्यता का ठेका नहीं ले रखा है। जब ज़रुरत पड़े चंडी बन जाना चाहिए। जब अपने रोटी-कपडे और माकन का इंतज़ाम खुद कर लोगी तब compromise जैसे शब्द जिंदगी के शब्दकोष में एक कोने में दुबक जाएंगे। और यही करना भी है।
समझ लो, कोई पुरुष, कितना भी सागा हो, तुम्हारी इस लड़ाई में पूरी तरह साथ नहीं देगा। क्यूंकि वह अपने लिए जमाई गई सत्ता (पितृसत्ता) को खोना कभी नहीं चाहेगा। जैसे शादी के बाद तुम्हे ही उसके घर जाना है, वो तुम्हारे घर नहीं आएगा। इसलिए तो तथाकथित समाज ने ऐसी व्यवस्था बनाई है। पर जो अगर साथ दे दे तो वह विरला ही होगा। अगर इतनी किस्मत की कुबेर हो तो ऐसे पुरुष को दोनों हाथों से थाम लेना। पर प्रिय सहेली, संघर्ष तुम्हारा ही है, इसलिए अपनी कहनीं की तुम खुद हो नायिका।
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