क्यों है खुद से बात करना एक बेहतर विकल्प
यहां खुद के judge होने सम्भावना खत्म हो जाती हैं। अब सामने तो कोई है ही नहीं तो वक्ता भी हम हैं और श्रोता भी हम। वक़्त भी हमारा है और वक़्त का चुनाव भी। पूरी सहूलियत के साथ जितना खुलकर हम खुद से कुछ कह सकते हैं उतना और किसी से भी नहीं, चाहे कोई कितना भी अपना हो, कितना भी सगा। चाहे बातें करने के लिए दोस्त हों या ना हों, खुद से बातें करने का अलग ही महत्व है।
जब खुद के साथ पूरे इत्मीनान से बैठते हैं, कोई भी बात, कोई किस्सा शुरू करते हैं तो परत दर परत तहें खुलती जाती हैं। उस विषय के कई आयाम सामने आते हैं। हर आयाम को पूरा समय देकर हम उस पर चर्चा करते हैं, खुद से। बड़े-सयानों ने कहा भी है, जब इस तरह हम खुद से बातें करने बैठते हैं तो अपनी उलझनों को स्वयं ही सुलझा लेते हैं।
सामने वाला क्या सोंचेगा, कैसे समझेगा - इस घबराहट से हम दूर होते हैं। धीरे- धीरे सब कुछ बोल देने से जाने भीतर हल्का होता है या नहीं पर कुछ सुलझता ज़रूर जाता है। गिरहें जो ढीली होती जाती हैं। मुमकिन है ऐसा करते देख कोई टोक भी दे। क्यूंकि इस तरह खुद से बातें करने को आम तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है। हाँ लेकिन कुंठित या उदास रहना लोग बड़ी तेज़ी से स्वीकार कर लेते हैं, अजीब है ना दुनिया की ये आदत। मर्ज समझ आता है, औषधि नहीं।
दोस्तों का होना बड़ी प्यारी संपदा है, पर अब जिनके नहीं हैं उनका क्या करें? वे अपनी बातों, भावनाओं, उत्सुक्ताओं, आंसुओं आदि को लेकर किस के पास जाएँ? दोस्त नहीं तो दारू। कई नशे का सहारा लेते हैं। यह खुमारी आसान ज़रूर है पर इलाज नहीं। नशे के उतरते ही आपका पुराना मिज़ाज़ लौट आता है।
इसलिए भटकन से बेहतर है भीतर की ओर
क्यों ना अपने ही भीतर का दरवाज़ा खटखटाया जाए। ये दिल भी आपका है और देहलीज़ भी आपकी। दस्तक दीजिये। दूर नहीं है ना? पुराने कई खयाल बिखरे मिलेंगे। थोड़ा बुहार लीजिये। अब बैठिये। यहां आप अपने साथ हैं। यह सबसे ज़्यादा सुकून भरी जगह ऊपर वाले आर्किटेक्ट ने बना दी थी हमेशा से। पर हमारा ध्यान इस तरफ कभी होता ही नहीं। एक बार जब आप इसका अनुभव ले लेंगे फिर ये जगह आपको बराबर आकर्षित करती रहेगी हमेशा। फिर दोस्तों का व्यस्त होना या उनका ना होना, खलेगा नहीं। अब आप अधूरा, अकेला, असहाय महसूस करना छोड़ चुके होंगे। क्यूंकि हम खुद में ही पूरे हैं, ऐसा अब हमने अनुभव कर लिया इसलिए इस सच को स्वीकारते हैं।
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