चौखट पर बनते रिश्ते
ध्यान है जब माँ रात को दही जमाने के लिए कहती की जा पड़ोस में से थोड़ा जामन ले आ। तो कभी पडोसी बिना हिचक के आ जाते की मेहमान आने वाले हैं आपका वो वाला डिनर सेट दे दीजिये जो अपने पिछले महीने खरीदा था। यह उस ज़माने की बात है जब सब को पता होता था की किस घर में क्या नया खरीदा गया है। कोई किसी से कुछ छुपाता नहीं था, ना किसी को कोई हिचकिचाहट ही थी किसी से कुछ कहने में, कुछ मांगने में।
क्या गज़ब का खूबसूरत है ना अपना देश, कोई चीज़ अचानक खत्म हो जाए तो दुकान से पहले पड़ोस याद आता है और अचानक आन पड़ी ज़रुरत पूरी कर लेते हैं। बताइये यह सुविधा भला और किस देश में मिलेगी? एटिकेट या मैनर्स नाम का ऐसा आतंक है की कोई "हाई प्रोफाइल" ना किसी से कुछ मांगता और ना ही अपेक्षा करता की सामने वाला उनसे कुछ मांगे।
अब जब इन छोटी मोटी ज़रूरतों के बहाने ही मिलना जुलना हुआ ही नहीं, एक-दुसरे को परस्पर जानने समझने के मौके दिए ही नहीं गए तो फिर हम करीब कैसे आ पाते? हम तो दूर-दूर ही रह गए। दही-चीनी या किसी छोटे मोटे सामानों की आपूर्ति बाजू वाले जनरल स्टोर से हो जाती है पर इन सबके ऊपर एक और बात है जिसकी ज़रुरत आज समूचे विश्व को है - वह है भावनात्मक ज़रुरत।
ये जो दही-चीनी के लिए एक-दूसरे के घर जाना था वह जरिया बनता था दो-पांच मिनट हाल-समाचार पूछ लेने का। लोग पड़ोसियों से अपना हाल - ए - दिल बयां कर लेते थे। आज घरों की बाउंड्री बेहद मज़बूत हो गई है, सीसीटीवी कैमरों में हर गतिविधि कैद है तो कोई आसपास फटकता भी नहीं। वो बातें जिन्हे आपस में बांट लेने से मन हल्का हो जाया करता था, वे अब भीतर भर रही हैं, बेचैनी बढ़ा रही हैं। थेरेपिस्ट के चक्कर लगा रहे हैं - पर बात वही की वही, मिज़ाज़ में ख़ुशी अब भी गायब है।
तो क्यों ना घरों के दरवाजे खोलें जाएं, चाय- कॉफ़ी के निमंत्रण दिए जाएं, कुछ कही जाये, कुछ सुनी जाये, हंसी - ठहाकों को बरसने दिया जाये, आँसुंओं को पिघलने दिया जाये, थोड़ा हल्का होने दिया जाए। आइये इस परंपरा को फिर से शामिल करते हैं। बेहिचक सामने वाली आंटी के घर एक कटोरी सब्ज़ी देने चलते हैं। जब आप घर वापस आएंगे तो चाय का निमंत्रण साथ लेकर आएंगे।
भावनाओं के लिए द्वार खुलेंगे। बड़ा सस्ता है ये सौदा यार। ज़्यादा ना सोंचिये, जाइये और आने भी दीजिये। चायपत्ती-चीनी के रास्ते दो बातें कीजिये। दिलों को जुड़ने दीजिये, तरंगें बनने दीजिये .
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