वो 12 मिनट मेट्रो के
वह ऑफिस जाने के लिए सुबह 8:15 की मेट्रो पकड़ती थी। 9 से 6 वाले काम का उसका पहला ही अनुभव था। सुबह उठना, तैयार होना, ऑफिस के लिए निकल जाना, काम खत्म कर घर के लिए लौटना, घर आकर -खाकर सो जाना। एक महीने से चल रही यह मशीनी जिंदगी उसे अजीब सी लग रही थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था की जिस जॉब का इंतज़ार वो इतने लम्बे समय से कर रही थी उसके मिलने पर वह खुश क्यों नहीं हो पा रही। बहुत हद तक मिला वही जो चाहिए था पर शायद इस तरह नहीं।
ऐसे ही एक दिन उसने सुबह की मेट्रो पकड़ी, जगह देख कर बैठ गइ। अपने घर से रेलवे स्टेशन तक की दूरी, जहां से वह ऑफिस पहुंचने के लिए दूसरा साधन लेती थी, एक मैगज़ीन की तरह होती जो कई सारे रंग-बिरंगे किस्से से भरी रहती। हर चेहरा एक अलग ही कहानी बयां कर रहा होता। यह जयपुर मेट्रो है जो अक्सर खाली ही रहती है। सो यहां जगह की जगह सवारी देखकर बैठने का विकल्प रहता है। कई चेहरे भाग रहे थे, किसी चेहरे पर तनाव बैठा बैठा था, कोई शून्य को ताक रहा था और बाकी मोबाइल को।
यहीं एक ऐसा चेहरा भी था जिस पर इत्मीनान मुस्कुरा रहा था। उसकी ये भीनी सी मुस्कान नशीली थी। उसके होठ रुक-रुक कर कुछ गुनगुना रहे थे। उसकी आँखें धीमे-धीमे पूरे डिब्बे का चक्कर लगाती। कभी खिड़की से बाहर देखती। कान उसके पगड़ी में छिपे थे ज़रूर उनमे कोई मीठी धुन बज रही होगी तभी तो वह शख्स अपने मोहक भाव से अनजाने ही उस लड़की को खींच रहा था। वह अपनी नज़रों से उस लड़के की हर हरकत से बातें कर रही थी। एक गज़ब का आकर्षण था उसमे।
जैसे ही नज़रें टकराती वह सकुचा के कहीं और देखने लगती। कुछ पल ही रुकती की फिर वह लुभावना व्यक्तित्व उसकी निगाहें खींच लेता। कई बार तो हड़बड़ा जाती की कहीं उसका स्टॉप पीछे छूट तो नहीं गया। पर जब उसे भी रेलवे स्टेशन पर साथ उतरते देखा तो एक नन्ही सी ख़ुशी मिल गई की अब उसे निहारने के चक्कर में स्टॉप नहीं छूटेगा।
अब ये सिलसिला होगया। सवा आठ मेट्रो पकड़ते ही आँखें पहले वही चितचोर ढूंढती। जो अगर नहीं दिखता तो हल्की उदासी भी आ जाती। और जैसे ही दिख जाता तो जैसे मन की आँखें खिल जाती।
उसे वो इतना भाने लगा की ऑफिस में वो उसकी बातें करने लगी। कलीग्स ने उसे उस से बात करने को कहा। जो उसने अब तक नहीं की थी। वे लंच टाइम रोज़ उसे छेड़ते की सरदार जी से बात हुई? जिसके जवाब में वो मुस्कुरा कर मना कर देती।
दिसंबर का महीना था और एक हफ्ते से वह चितचोर मेट्रो में नहीं दिखा था। ये जो हर रोज़ 12 मिनट का सुहानापन था उसमे कोहरा जमने लगा। पर आँखें नित नए दिन मेट्रो में चढ़ते ही उसे ढूंढती ज़रूर थी। अनजाना ही तो था वो, पर मन उसके बारे में जानना चाहता था। एक दिन जैसे ही वह फिर नज़र आगया खिड़की से बाहर देखता हुआ कुछ गुनगुनाते हुए, मन का आंगन फिर से चमक उठा। उसे पता ही नहीं चला कब वो उसके ज़रा सा पास जाकर बैठ गई। इस बार तो उसे परवाह ही नहीं थी की कहीं वो भी उसे देखते हुए तो नहीं देख रहा होगा। नज़रें इस बार ये चौखट पार कर थोड़ा और करीब चली गई थीं।
इंसान एक तरफ से प्रीति कर के भी एक छोटे से ऐसे संतोष को पा लेता है जो उसे दो तरफा से भी शायद ना मिले। जिस से एक शब्द भी बात ना हुई हो पर उसके होने और ना होने से फर्क पड़ने लगा हो। उसका नाम, उसका काम, पता, वह उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। 12 मिनट में उसने अब तक जो कुछ फिसलती नज़रों से निहारा था, बस उतना ही पता था उसे उसके बारे में। और जैसे उतना ही काफी था। एक 'अजनबी' के लिए एक अनकही परवाह।
साल का आख्रिरी सप्ताह बीत रहा था और उसके मन में ख़याल आया की नए साल में वह एक प्रण यह ले की वह जिस बात की इच्छा रखे - उसे पूरा करने का प्रयास ज़रूर करे, बिना किसी हिचक के। इस सोंच का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ की उसका ध्यान अनायास ही अपने चितचोर पर गया। दो महीने से जिस से वह सिर्फ आँखों से बातें (एक तरफा) करती आ रही थी। उसे शब्द देने के लिए उसके दिमाग ने उस के दिल से आग्रह किया।
2 जनवरी को ऑफिस से लौटते वक़्त जब आपाधापी में मेट्रो पकड़ी तब पहली बार लौटते वक़्त उसे प्लेटफार्म पर देख कर उसकी आँखें सुबह की तरह खिल गयी। मेट्रो आ चुकी थी पर वो उसके साथ चढ़ना चाहती थी। बात करने के लिए वह इतनी हिम्मत अपनी उस न्यू इयर रेसोलुशन के चलते जुटा ली थी। जैसे ही वह करीब आया उसने उस से पूछ लिया - "आप कहीं काम करते हैं?"
उसने अपने वही सहज भाव वाली मुस्कान के साथ जवाब दिया "हाँ"। जवाब इतना छोटा था की वह उसे आगे बात करने से रोक लेता पर, जवाब के साथ जो भागते हुए, मेट्रो पकड़ने की जद्दोजहद और दिन भर की थकान के बाद भी जो मुस्कराहट मिली उसने उसे उस से आगे बात करने को प्रेरित कर दिया।
अपने घर के स्टेशन पर वह उसे छोड़ आई पर उस संक्षेप मुस्कराहट को अपने साथ घर ले आई। उस रात उसने उस मुस्कराहट को पूरी रात जीया। इतने दिनों में पहली बार उसकी मुस्कान को उसने बिना आंखें बचाए जी भर के देखा था।
अगली सुबह एक खास सुबह थी। ख़ास इसलिए क्यूंकि वह पिछली शाम उस से बात करने की पहल कर चुकी थी। ना जाने कहां से आज उसकी नज़ाखत पर उसका आत्मविश्वास दबंग हो गया था। जैसे ही वह उस से मिली उसने पूरी उत्सुकता से अपने अज़नबी को गुड मॉर्निंग कहा। उसका स्वर एक सहज उत्साह से भरा था। जैसे वह रोज़ की बात हो।
उस अज़नबी चित्तचोर ने भी पूरी गर्मजोशी से जवाब दिया। आज दोनों की आँखें शब्दों के साथ बातें कर रही थी। अब तक वह उसे देखती आयी थी। पहली बार उसने उसे भी उसे देखते देखा। भोले आत्मविश्वास से उसने बात बढ़ाई और कहा "मेरा नाम पृथ्वी है"। सुनते ही अज़नबी मुस्कुराया, उसकी आँखों में हल्की शर्म साफ़ नज़र आ रही थी। फिर उसने अपना नाम बताया - सुखप्रीत।
नाम में भी सुख और स्नेह! बातें जिस से वह रोज़ अपने दिल की देहलीज़ के भीतर ही करती थी आज वह हकीकत थी। पृथ्वी ने पूरी सहजता और नज़ाखत के साथ उस से कहा, "जो सुख और ख़ुशी आपके चेहरे पर है वही आपके नाम में है"। सुनते ही सुखप्रीत खुलकर मुस्कुराने लगा और वह आगे कहती गई, "रोज़ कई तरह के लोगों को हम देखते हैं, कोई किसी जल्दी में होता है, तो कोई तनाव में, कोई बेचैन, तो कोई बेजान, बेरंग पर आपके चेहरे की इत्मीनान भरे भावों की तरंगें पूरी हड़बड़ाहट को शांत कर देती हैं। ऐसे लोग बहुत कम देखने को मिलते हैं। आपको देखना अच्छा लगता है"। वो आगे बहुत कुछ कहना चाहती थी, कहे जा रही थी, वह सब कुछ जो उसने पहले दिन से महसूस किया था, वह सब जो वह उस से हर रोज़ उन 12 मिनटों में अपनी आँखों से कहा करती थी।
सुखप्रीत ने पृथ्वी की बातों को उसी आराम से सुना जो उसके व्यक्तित्व में झलकता था। एक लड़की उसे इस कदर देखती है यह जानकर वह असहज नहीं हुआ बल्कि उसके चेहरे पर स्वीकार का भाव था जैसे वह पृथ्वी के कॉम्प्लिमेंट्स एक्सेप्ट कर रहा था।
सुखप्रीत ने बताया की वह दुसरे शहर में बैंक में मैनेजर है और वहां जाने के लिए रेलवे स्टेशन से ट्रैन पकड़ता है। पृथ्वी ने आगे भोलेपन से पुछा - "एक बार आप एक पूरे हफ्ते दिखे ही नहीं। कहीं सर्दी तो नहीं लग गई थी आपको?" पृथ्वी उसे इतने लम्बे समय से नोटिस कर रही थी इस बात का सुखप्रीत को बुरा या अजीब नहीं लगा। पर जैसे वह समझ गया की वह छोटी चिंता भरी शिकायत सी थी। उसने धीमी मुस्कान के साथ बताया की वह बीमार नहीं था, मेट्रो छूट जाने की वजह से वह बस से यात्रा कर रहा था।
पृथ्वी तो जैसे पूरे दिन वहीँ मेट्रो के डब्बे में प्रीत से बातें करते हुए गुजार लेना चाहती थी। पर अब 12 मिनट पूरे हो चुके थे और दोनों को उतरना था। दोनों ने अपना सामान लिया, उठे और दरवाजे पर खड़े होगये। पृथ्वी प्रीत के पीछे खड़ी थी। बातें तो आज शुरू ही हुए थी तो पूरी होने का प्रश्न ही नहीं था पर स्टॉप आने की वजह से दोनों को ही बीच में उठना पड़ गया था। पृथ्वी का मन जैसे कुछ अधूरा सा महसूस कर रहा था की प्रीत ने पीछे मुड़ कर हलकी मुस्कराहट कहा - "बाय"। पृथ्वी ने अपने खिलखिला गए चेहरे को थोड़ा संभालते हुए जवाब दिया।
स्टॉप आगया, मेट्रो का दरवाजा खुला, और सवारियां उतर गयी। सभी अपनी राह चल दिए। मन के मुस्कराहट की चमक उसके चेहरे और चाल में झलक रही थी। ऑफिस पहुंची तो पता पड़ा बॉस ने शाम को ब्रीफिंग मीटिंग रखी है। कलीग्स ने उसकी नयी मुस्कान के बारे में पुछा तो उसने मिली जीत की तरह बताया की आखिरकार उसने सरदारजी से बात कर ली। सुनते ही सब बड़े खुश और उत्सुक होगये बात को विस्तार में जानने को।
पृथ्वी ने धीमे-धीमे बड़े प्यार से -हर बात- हर भाव बताया। कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला इतने में किसी ने पृथ्वी को बुलवा भेजा की बॉस ने केबिन में बुलाया है। तभी उसे शाम को होने वाली मीटिंग का ध्यान आया। वह तुरंत केबिन में पहुंची तो उसे पता चला की उसे नौकरी से निकाल दिया गया था। वह धक्क से रह गई। अभी उसकी सुबह की मीठी बातें पूरी नहीं हुई थी की इस घटना ने सब कसैला कर दिया।
शाम की मेट्रो पकड़ते वक़्त उसका उल्लसित मन शांत होगया था। उसे यह शांति अखर भी नहीं रही थी। वह मशीनी जीवन उसे यूं भी अनुकूल नहीं लग रहा था। दूसरी तरफ वह इसलिए अच्छा महसूस कर रही थी की उसने अपने मेट्रो वाले अज़नबी चित्तचोर से मुद्दतों बाद दो बातें कर ली थी।
चीज़ें कब आखरी बार हो रही हैं यह हमे नहीं मालूम होता, इसलिए टालिए मत। अगर किसी के लिए कुछ करना चाहते हैं, अगर किसी से कुछ कहना चाहते हैं, तो देर ना करिये। खासकर की कह देने का अनुभव ज़रूर लीजिये।
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