पूरा जाने बिना राय कैसे बना सकते हैं?
क्या केवल अपने हिस्से के सच को जानकर संतुष्ट हो जाना ठीक बात है? क्या सिर्फ अपने हितों या कहें स्वार्थों के सहारे चलते चले जायेंगे?
सीमा है, हमारी नज़र की, और नज़रिये की भी। क्यूंकि ज़रूरी नहीं सच उतना ही हो जितनी हमारी समझ। तस्वीर का दूसरा हिस्सा वो पहलू है जो कई बार दिखता नहीं। तो क्या इसलिए उसे नकार दिया जाए? ये सरल है पर सही नहीं। कुछ ऐसा ही नहीं होता जब हम लोगों से मिलकर अपने जहन में उनकी एक छवि सी बना लेते हैं ? हमे वो छवि इतनी पुख्ता लगने लगती है की उसका लेबल तक लगा देते हैं उसके व्यक्तित्व पर। ना चाहते हुए भी एक गाँठ सी बन जाती है उस दरमियान। चलिए एक बार उस गाँठ को खोलकर देखते हैं, क्या सचमुच वही सही है जो भीतर बांधा था?
जब भी किसी एक तरफा पक्ष की गाँठ खुलेगी, हैरान कर देगी।
चलिए ज़रा बचपन में चलते हैं जब बड़े किसी पुराने बंद पड़े मकान को देखकर कोई डरावनी कहानी बता कर हमे उस तरफ जाने से रोक लेते थे। पर हमारी उत्सुकता हमे उस वीरान पड़े मकान की तरफ बार बार ज़रूर खींचती रहती। पर, उन भयभीत क़र देने वाले किस्से हमारी राहें रोक लेते।
फिर धीमे धीमे, समय बीतता और हमारी समझ बढ़ती जाती तब पता चलता की आखिर बात क्या थी। पर तब तक उस पुराने खंडर हो चुके घर की तरफ जाने, उसके बारे में जानने का कौतुहल शांत हो चूका होता। उस वक़्त ना तो हैरानी होती की कभी उन डरावनी कहानियों की वजह क्यों नहीं पूछी और ना ही हंसी ही आती।
आपको नहीं लगता की आज कुछ ऐसा ही सिलसिला हमने बना लिया है। हम किसी के प्रति कोई एक राय बना कर दुसरे को वैसा कुछ बता देते हैं उनके मन में बेड़ियाँ डालने के लिए।
क्यों ना दूसरा सिरा जानने की कोशिश की जाए, चीज़ों को पूरा समझने का प्रयास किया जाए। तस्वीर का दूसरा पहलू देखा जाए। तभी तो पूरी बात पूरी तरह से समझ आएगी। इसलिये तस्वीर को पूरा देखने की कोशिश खुद के हित की राह में अवरोध माने बिना देखने की प्रक्रिया निभानी है।
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