मेरी आवाज़ ही पहचान है
92 साल वे हमारे साथ थीं तो भी लगता है जैसे कम थीं। क्यों, सांसें आजकल इतना कहां निभा पातीं हैं, ऐसे में अपनी जिंदगी के नौवें दशक में बेहद सरलता से आ जाना कोई-कोई ही कर पाता है, ऐसा जिसकी शख्सियत में मिठास हो। जी हैं, ऐसी मीठी आवाज़ों वाली हमारी बेहद अपनी लता दीदी (उम्र के इस पड़ाव में भी सब उन्हें ऐसे ही बुलाते हैं) उन कुछ चुनिंदा में से एक हैं। पर एक सच यह भी है की उनके जीवन की राहें कसैली भी रही हैं।
गले में सरस्वती विराजमान होने से सफलता कदम चूमने नहीं लगती। अपने हिस्से का प्रयास और संघर्ष सबकी तरह उन्होंने भी लगातार किया। यूँ ही नहीं कोई गानों में प्राण फूंक देता है। कौनसा ऐसा इंसानी भाव, तेवर या वाकया है जो इन्होने गा कर ना सुनाया हो। ऐसा लगता है जैसे वो केवल गीतकार के लिखे गीतों की ही नहीं हमारी भीतर की आवाज़ थी। कहते हैं काम ही पूजा है, वे ऐसा ही मानतीं थीं। इसलिए गानों की रिकॉर्डिंग करते समय वो चप्पल नहीं पहनती थीं, फिर चाहे विदेश में ठंड के मौसम में परफॉर्म क्यों ना करना हो।
इतना सब के बावजूद कुछ अधूरापन उनकी जिंदगी में भी रहा जो अंत तक पूरा हुआ ही नहीं। ऐसा नहीं की बिना जीवनसाथी के जीया नहीं जा सकता पर अगर साथ हो तो सफर खुशनुमा किया जा सकता है। पर प्रभु ने इस रिश्ते से उन्हें वंचित ही रखा। जीवन की राहों के हमराही ना होना कैसा लगता होगा? यह भी एक तरह का भाव है, बहुत गाढ़ा। यह कोई बताता नहीं, पर बराबर महसूस करता है। इतना दर्द भीतर मथने के बाद भी जो बाहर आता था वह भाव विभोर कर जाता था। तभी तो उनके प्रेम पर गाए गानों को सुनकर दिल सहज ही प्रीत को प्रेरित होने लगता है।
चाहे कोई भी उम्र हो, लगभग सभी ने लता ताई को कभी ना कभी सुना है, महसूस किया है। रेडियो, दूरदर्शन, आकाशवाणी जैसे विभिन्न माध्यमों से हमे उनकी गायकी का अनेकों बार रस लेने का हसीं मौका मिलता रहा। खाना बनाते हुए किचन में, गाडी चलाते हुए सफर में, सिंदूरी शामों में, चांदनी रातों में, ना जाने कितनी यादें हम सब की जुडी हैं उनकी अपनी सी लगने वाली आवाज़ से।
घनी खूबसूरत वादियों में, नुकीली चट्टानों पर, झील किनारे, रातों के अंधेरों से सुबह की ओर ले जाते उजालों में। भक्ति में से राष्ट्र प्रेम में, उनकी आवाज़ में गाए गीतों का कोई सानी नहीं। ऐसे कई अकेलों का साथ बनी है लता ताई की जादुई आवाज़। कितनों ने इसी आवाज़ के साथ जिंदगी का एक लम्बा अरसा पूरा किया। जरा पूछिए उनसे की अगर ना होते लता दी के सुरीले नगमे, क्या रह लेते और जी लेते अपने अकेलेपन-अधूरेपन के साथ। जनाब, लता किसी के लिए सुबह का चढ़ता सूरज है, तो किसी के लिए अकेले सफर का साथी, किसी के लिए ढलती शाम में चाय के साथ है तो रातों की हमसफ़र है किसी के लिए, जिंदगी है किसी के लिए।
नब्बे साल के समय में उनके पास क्या था जो उन्हें हमेशा प्रेरित करता रहता होगा। टूटती वो भी होंगी, हताशा ने कभी उन्हें भी घेरा होगा। कैसे संभालती होंगी वे खुद को? क्यूंकि उन्हें रियाज़ भी करना होता था, वह भी रोज, ऐसे में वो अपने बिखराव को वापस समेट कर खुद को कैसे दुबारा खड़ा कर लेती होंगी? परिवार होता है, उनका भी है, पर पति या बच्चा नहीं जो पास रहा हो।
गानें तो ज़िन्दगी का हिस्सा होते हैं। हम सभी सुनते हैं, रोज़। पर गानों को जीना लता दी की आवाज़ ने सिखाया। क्या हम अपने जीवन की कल्पना उनके बिना कर सकते हैं। मुमकिन ही नहीं। ख़ुशी में, उल्लास में, दुःख में, उदासी में, या फिर शून्यता में, यूं कहें किसी अवस्था में, दवाई से ज़्यादा असरदार औषधि थी उनकी अमरत्व पायी हुई सुरीली आवाज़। हम-तुम मरते हैं, श्रुतियाँ नहीं। आज जिस सम्मान और लगाव से दुनियां उन्हें याद कर रहे हैं, उसके पीछे उनका सालों किया तप है।
खुश रहना देश के प्यारों, अब हम तो सफर करते हैं
- शायद यही कहते हुए उन्होंने आज विदा ली।
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