दादी की दुलारी ऊरु से सुनिए भारतीय दादी की 'कहानी'
मेरा मन तो जैसे बार बार चौंक जाता है जब मैं मेरी दादी की जन्मस्थली - उनका गांव - 'जीवनचक' (भारत के बिहार राज्य के पटना जिले में स्थित है) व्यसक होने पर मेरा जब वहां जाना हुआ तब मैंने सोंचा कि उस गांव में एक नन्ही बच्ची के रूप में जन्म लेने वाली मेरी दादी के क्या ख्वाब होंगे? वहां का अब देख कर मैं तब की आबो हवा के बारे में सोंचने लगी की दादी यहीं खेलीं होंगी। और जो उन्होंने अपने बचपन की बातें सुनाई थी उसकी यही पृष्ठ भूमि है। यह बड़ा ही अनोखा भाव है जिसे आप महसूस करते हैं जा आप ठीक उसी जगह खड़े होते हैं जहाँ आपके बड़े बुजुर्ग ने कभी खेल खेले होंगे।
दादी की माँ का देहांत बहुत जल्दी हो गया था। बचपन में ही माँ को खोने का गम दादी के लिए कैसा रहा होगा? उस कोमल उम्र में एक नन्ही सी बच्ची उतने बड़े घर में खुद के अकेलेपन को कैसे संभालती होगी। और फिर छोटी ही उम्र में उनकी शादी हो जाती है जाती है। उन पर क्या बीतती होगी जब उनकी शादी बहुत ही छोटी उम्र में कर दी गई थी।
बेहद छोटी सी उम्र में शादी हो जाने के बाद जब वे अपने ससुराल पहुंची तो उनके (एक बच्ची के ) सामने बड़ा संयुक्त परिवार था जिसके साथ उनकी गृहस्ती की शुरुआत हुई। मैंने जब उनका कमरा देखा तो देखा की एक बड़ा सा हॉल नुमा कमरा है। उस कमरे में केवल दो ऊँचाई पे बने रोशनदान हैं , एक दरवाज़ा आवागमन के लिए - बस। एक नव युवती, नव विवाहिता उसमे कैसे रही होगी ! मालूम पड़ा की जो सारा सामान दादी जी को उनके मइके से उपहार स्वरुप मिला था वह सारा का सारा मेरी बड़ी दादी जी (मेरे पिता जी की दादी जी) ने मेरी पिता जी की बुआ की शादी में उनके साथ उनके ससुराल भिजवा दिया था। कैसा लगा होगा मेरी कोमल सी दादी को!
उस उम्र में उनका सबसे प्यारा रिश्ता उनके नाना जी से था। बुकमार्क की जगह दादी अपने नाना जी की तस्वीर को एक ट्रांसपेरेंट पॉकेट में संभाल के अपनी धार्मिक किताबों में रखती थी। रोज सुबह - शाम गीता - रामायण का एक घंटे का पाठ उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था।
दादी जी दादा जी से अधिक तनख्वाह पे नियुक्त हुई थी पर दादाजी ने उन्हें घर सँभालने के लिए कहा तो उन्होंने तुरंत अपनी नौकरी छोड़ दी। पर उन्होंने हम तीन बेटियों (मैं, मेरी दो बहने) की सर्वोच्च शिक्षा की हमेशा वकालत की और आज इसी आशीर्वाद की देन है की आज की तरीक में मुहे सेंट्रल यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट की उपाधि से सम्मानित किया जा चूका है और छोटी बहन ओशिन आई आई टी बॉम्बे से पिएचदी पूरी करने वाली है। मानसी भी नक़्शे कदम पे है।
उनकी कई खासियतों में से एक यह बात थी की उनसे जब भी कोई मेरी शादी के बारे के बात करता तो वे उन्हें तुरंत चुप कर देती थीं यह कहकर की शादी पूरी पढ़ाई करा कर की करेंगे। वह हमेशा चाहतीं थीं की हम तीनों बहने आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने। और आज यह सच होता जा रहा है उनके असीम आशीर्वचनों से।
दादी जी काम के सिलसिले में बाहर निकले तो कुछ समय बाद दादी जी भी उनके साथ गई। तब दादी अपने साथ केवल चुनिंदा सामान ही ले जा पाई थीं। जहां गई वहां अक्सर उनके डेरे पर मेहमान और रिश्तेदार आते रहते। कुछ तो ऐसे जो महीनों वहीँ उनके साथ रहते। क्या आज ऐसा संभव है ? पर दादी ज़रा से बजट में ना केवल पूरा घर संभालती बल्कि रिश्तेदारों की सेवा भी करती। तीन बच्चे और एक दम्पति - पांच लोगों का घर और फिर उतने ही रिश्तेदारों का भोजन, कपडा आदि खर्चे- सब उसी तनख्वाह में से दी गई सीमित राशि में। मेरी दादी सब करती।
मेरी दादी में कल्त्मकता कूट कूट कर भरी हुई थी। तंगी में भी क्रोशियेट के टेबल क्लॉथ बनाने का शौक। सफ़ेद क्रोशियेट के धागे मेहेंगे होते थे तो दादी दूध या सब्जी के थैलों को बांधने में सफ़ेद रस्सी का इस्तेमाल करती। आज भी मेरे घर की टेबल इत्यादि पे उनके द्वारा बनाई गई खूबसूरत कलाकृतियां सजी हुई हैं। जिन्हे देखती हूँ तो ये कहानी सुनती हूँ। सिलने बुनने का उनका शौक ऐसा था की मैंने और हमारे घर एक लोगों ने सालों तक उनकी ही बुनी हुई ऊनी टोपी, स्वेटर, और अन्य कपड़े पहने हैं।
दादी मेहमानों को चाय पीये बगैर जाने नहीं देती थी। और अगर खाने का समय हो गया है तो, खाना खिलाकर ही विदा करती थी। उनकी ये बात आज भी उनसे मिले हमारे कई रिश्तेदार याद करते हैं।
मेरे पिता जी गुस्सा करते की जब भी कोई आवाज़ गली में सुनती तो दौड़ पड़ती की क्या बेच रहा है। वे कई सब्जी वालों से कुछ कुछ सब्जियां लेती। पिता जी कहते की माँ तू एक बार में ही सब क्यों नहीं ले लेती ? क्यों बार बार सब से कुछ कुछ लेती रहती है ? एक दिन उन्होंने इसका कारण बताया की थोड़ा थोड़ा रुपया सबको मिलेगा तो सबका घर चलता रहेगा। सबको आस रहती है। उसे निराश ना करने की कोशिश करो।
मेरी दादी ने हमे फिजूलखर्ची से बचने का रास्ता दिखाया। सामानों को १००% इस्तेमाल करने का तरीका बताया। पाई पाई करके घर बना लेने का गुर सिखाया। मैंने उन्हें चुनिंदा कुछ साड़ियां पहने ही देखा है। सीमित चीज़ों में गहरे आनंद लेना मैंने मेरी दादी से सीखा है।
दादा जी उन्हें गृह लक्ष्मी बुलाते थे। शायद उन्हें यह एहसास था की उनके जीवन में तरक्की का एक बड़ा कारण उनकी धर्मपत्नी मेरी दादी रहीं हैं।
ना केवल अपना काम वे स्वयं करती थीं बल्कि घर के अनेकों काम में वह माँ के साथ बराबर लगी रहती थीं। मुझे आज यह लगता है की ऐसा करने से ना केवल दादी शारीरिक दृष्टि से फुर्तीली और चंचल थीं बल्कि यही व्यस्तता उन्हें कई हद तक मानसिक दृष्टि से भी सहयोग देता था। घर के काम, पूजा -पाठ, अपने घरेलू शौक जैसे सिलाई-कढ़ाई-बुनाई, आचार- पकवान आदि बना के और खिला के उनके चेहरे पे मुस्कान और भीतर संतोष किसी को दिख सकता था।
मैं मेरी दादी की सबसे प्रिय थी। बचपन से मैं दादी के पास ही सोती थी। वे मुझे अनेकों भजन और गीत सुनाकर सुलातीं। शबरी का एक गीत जिसे मेरी दादी लोरी गाकर सुनाती थीं - "लमी-लमी केशिया शबरो अंगना बुहारे रामा" यह मेरी सबसे पसंदीदा लोरी थी। जिसे मैंने आखरी बार राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय जाने से पहले सुना था। दादी अपनी इच्छा अनुसार मुझे सर्वोच्च शिक्षा के पथ पर चलाकर, पिएचदी में मेरी सीट सुनिश्चित करके, मुझे भेज के स्वयं अपनी आगे की यात्रा पे निकल गयी।
पिता जी का जन्मदिन मना कर मैंने 27 अक्टूबर 2014 को राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय चली गयी थी। और 11 नवंबर 2014 की शाम को हमे कॉल आ गया था की दादी अब नहीं हैं। देर शाम की बात थी। अपने नित काम करते हुए , सूखे कपडे बाहर ला कर, तह लगा कर, उनकी जगहों पर पहुंचकर सबके साथ दादी भी शाम की चाय पर घर के ड्राइंग रूम में बैठी थी अपने स्थान पे। चाय का समय पूरा हुआ, और सब अपने कामों से वहां से निकलते गए , दादी की कॉफ़ी बची हुई थी, और वे आखरी में अकेले ही बैठी थीं, किन्ही कारणों से घर के सभी सदस्य यहाँ वहां हो गये थे। तब मानसी, मेरी छोटी बहन, कुछ पूछने दादी के पास आयी तो देखा की दादी ने एक लम्बी गहरी सांस ली और फिर अपना शरीर छोड़ दिया।
कहते हैं की प्राण जब निकलते हैं तो बड़ी पीड़ा होती है। पर अगर आपके करम अच्छे हों तो व्यक्ति ऐसे प्राण त्यागता है जैसे उसने अपने जीवन की आखरी सांस पूरी की हो। बस। बेहद सहज। यकीनन मेरी दादी दिव्य थीं। और ऐसी आत्मा अगर आपके जीवन में दादी के रिश्ते में आपको मिले तो आप बेहद खुशकिस्मत हैं।
बस एक आस जो पूरी ना हो पायी थी।, वो थी उनकी ऊरु की शादी। जिसके उन्होंने मेरी माँ के साथ कई बार कई सपने देखे और दिखाए थे। ऊरु की शादी में सजावट ऐसी होगी, खाना यहाँ बनेगा, खाया वहां जाएगा। इन सबको बुलाएंगे। ये सारे गीत जाएंगे। दादी मेरी शादी की बातें करते हुए अक्सर शादी के गीत गाने भी लगतीं। पर प्रभु ने योजनाएं कुछ अलग बनायीं थी। सो मेरी शादी 2022 में हुई। प्रभु ने मेरी नानी को साक्षी बनाया और दादा-दादी और नानाजी का आशीर्वाद तो सदैव साथ है ही।
बिहार के एक बेहद छोटे से गांव से निकली एक छोटी बच्ची ने लगभग पूरा देश घूमा। और न जाने कितनी ऊंचे घरों की महिलाओं के साथ उठना - बैठना और फिर मित्रता हुई। मैं इसे आम बात नहीं मानती। क्यूंकि स्वीकार्यता का भाव जो हम अपने समाज में देखते हैं उस हिसाब से दादी ने पहले लोगों के दिलों में जगह बनाई, फिर लोग उनकी सरलता और वात्सल्य के दीवाने हो गये।
जी, हाँ, बातें बहुत हैं। क्यों ना हों, मेरे घर में शख्सियतें ही ऐसी हैं। मैं प्रभु को अनेकों प्रणाम करती हूँ की मुझे ऐसे पावन घर में जन्म मिला, जहाँ जिंदगी को पढ़ने और सीखने की अनंत संभावनाएं हैं।
1 Comments
Wow , what in a beautiful way you described about your precious Dadi Ji , each word take me to that time and I feel connection from every word . Keep shine 💝
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