जो देखे, वही आनंद ले- मणिलक्ष्मी तीर्थ

 


छुट्टी एक दिन की ही थी तो पिछली बार जो कैंसिल हुआ प्लान इस बार बन ही गया मणिलक्ष्मी तीर्थ का। आनंद से माणेज जाने के लिए कोई सीधी बस नहीं है, तो धर्मज चौकड़ी के लिए बस लेकर हम तीनो सुबह सात बजे रवाना हुए। मणिलक्ष्मी तीर्थ गुजरात में वडोदरा-भावनगर हाईवे पर बना हुआ है। तो यह पहुंचने के लिए शेयरिंग ऑटो लेकर हम तीनो साठ रुपए में इसके बेहद आकर्षक रूप से बनाये संगममरमर के प्रवेश द्वार पर पहुंचे। यह जगह करीब 44 एकड़ में फैली है। मंदिर का मुख्य हिस्सा करीब 31,000 वर्ग फुट में फैला है।


मंदिर तब पहुँचने के लिए हमे मोहक रूप से बांये बगीचे से गुजरना होता है। यहाँ क माली भाई -बहन लगातार काम करते रहते हैं। इसलिए यहाँ बेहद साफ रास्त हैं और पेड़ - पौधों की क्यारियों में सूखे पत्ते भी लगातार उठाये जा रहे दिखते हैं। 



मंदिर के लिए आगे चलते जाने पर आपका मन हर जगह पर तस्वीर लेने का करेगा। मेरे इसी आदत से पिता जी बड़ा चिढ़े रहते हैं। और मज़े की बात यह है की मुझे ये बात ख़ास प्रभावित नहीं करती। यहाँ पीने के पानी के लिए वाटरकूलर्स को एक बड़े से मटकेनुमा घर में रखा गया है, यह दूर से से ढूंढें जाने में आसान है और आकर्षित भी। प्राकृतिक खूबसूरती की भरमार इस धार्मिक स्थान (तीर्थ) के आकर्षण में कई चाँद लगाती है।




तीर्थ एक ऐसा धार्मिक स्थान होता है जहाँ बड़े साधु-संतों ने, ऋषि -मुनियों ने तप किया हो। वैसे ही जहाँ तीर्थंकरों - जैन धर्म के भगवानों ने यहाँ भी तपस्या की है, इसलिए मंदिर को  "मणिलक्ष्मी तीर्थ" कहा गया है। ऐसी जगहों पर जाने मात्र से भगवान की भक्ति में मन लगता है या नहीं यार चर्चा का विषय हो सकता है पर मन को शांति तो ज़रूर मिलती है। 


आजकल ज़्यादातर मंदिर "सर्वतोभद्र" प्रकार के बनते हैं, मतलब कि उसमें कोई भी तीर्थंकर की मूर्ति रखी जा सकती है। लेकिन मणिलक्ष्मी तीर्थ का मंदिर बहुत खास है क्योंकि यह "मानसंतुष्टि" नाम के डिज़ाइन पर बना है, जो सिर्फ मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के लिए होता है। यानि यह मंदिर पूरी तरह से शास्त्रों के अनुसार और बहुत सोच-समझकर बनाया गया है।


आँखों में कैद होजाने वाले बगीचों से होकर जैसे ही मंदिर के नज़दीक पहुंचते है, आँखें सुर्ख फूल पत्तियों, सेहतमंद पेड़ -पैधों से उचक कर मंदिर पर ठहर जाती है - एकटक। सुबह साढ़े नौ बजे के सूरज की रौशनी में नहाया यह श्वेत मणिलक्ष्मी तीर्थ अपने ही तरह का वास्तुकला का आकर्षक उदहारण लग रहा था।



यह मंदिर दो मंजिला है — नीचे भी विशाल है और ऊपर भी। प्रशेष करते ही और गहरी शान्ति महसूस हो रही थी। उस समय मंदिर के प्रांगण या बाहर, कोई भी आवाज़ का कण भी नहीं था। चमकीली प्रचंड धुप में भी मंदिर के बाहरी प्रांगण में बह रही हवा सहज और शीतल थी। मेरा मन हुआ की यहाँ कुछ देर बैठूं। पर दर्शन पहले ज़रूरी थे। वहां आकर्षक कटोरिओं में माथे पे लगाने के लिए कुछ चीज़ें राखी थी, एक सुंदर दर्पण के साथ। 

एक कटोरी  में मंदिर में ही केसर से तैयार की हुई टीका सामग्री थी, दूसरी में चन्दन पाउडर, तीसरी में प्रभु को स्नान कराया हुआ जल और आखरी कटोरी में था पानी जिस से हम अपने माथे पे अपना मनचाहा टीका लगाने के बाद अपनी अंगुलिओं को यहाँ वहां न पौंछते फिरें, बल्कि वही रखे पानी से धो लें।  

केसर का टीका लगा क मैं और माँ आगे बढे। पिता जी तब तक और आगे जा चुके थे। वो थोड़े ज़्यादा ही फुर्तीले रहते हैं इन चीज़ों में। इसके विपरीत मैं और माँ ठहर कर महसूस करना पसंद करते हैं। कोई गलत या सही नहीं है यहाँ पे। बस अपना अपना अंदाज़ है। और जिसमे ख़ुशी मिले, वही उसका सही।

चलिए, आगे बताती हूँ, मंदिर में अलग-अलग प्रकार के मंडप (हॉल) हैं। सबसे पहले आता है नृत्यमंडप (5000 वर्ग फुट), फिर आता है गूढ़मंडप (3500 वर्ग फुट और 63 फीट ऊँचा), उसके आगे है गर्भगृह (250 वर्ग फुट), जहाँ भगवान मुनिसुव्रतस्वामी विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह तक पहुँचने में मेरा और माँ का मुँह खुला का खुला रह गया। मंदिर की हर दीवार, खिड़की, दरवाजों और खम्बो पर बेहद बारीक काम है। इसकी खूबसूरती को आँखों से पीने में आपको अच्छा ख़ासा समय लग सकता है। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए और कारीगरों को याद करके उनकी कलाओं और मेहनत को प्रणाम करते हुए हम मंदिर का गर्भगृह, जहाँ भगवान मुनिसुव्रतस्वामी विराजमान हैं, पहुंचे। 

प्रभु की आँखें ही मणि हैं। सच! किसी मणि की भांति चमक रही थी उस निज मंदिर में जहाँ केवल कुछ दीयों की रौशनी थी। प्रभु का वर्ण कला था और हलके अँधेरे में प्रभु की आँखें हमारा ध्यान किसी चुम्बक जैसे खींच चुकी थी। 

ऊपर की मंजिल में एक और मंदिर है, जिसमें श्री नामिनाथ भगवान विराजमान हैं। और उसके दोनों तरफ (बाएँ और दाएँ) देवकुलिकाएँ हैं — यानी छोटे-छोटे मंदिर। मंदिर के ऊपर 3 शिखर (गुंबद) हैं, जिनमें से मुख्य शिखर पर 85 कलश (घट) हैं। मंदिर में 200 से ज़्यादा सुंदर खंभे (स्तंभ) हैं जिनपर नृत्य करती स्त्रियों की कलाकारी है। बाहर से देखने पर मंदिर में 72 झरोखे (खिड़कियाँ) दिखाई देती हैं। मंदिर का शिखर 134.1 फीट ऊँचा है, और उस पर जो ध्वज (झंडा) लगेगा वह 33.11 फीट ऊँचा होगा। इतना ऊँचा शिखर 5 किलोमीटर दूर से भी दिखता है।

                                 

मंदिर का अलावा, यहाँ जैन यात्रियों के लिए ठहरने की सुविधा है। कई तरह के गेस्ट हाउस हैं जो की विभिन्न तरह की सुविधाओं से पूर्ण हैं। कम सुविधाओं वालों की अलग श्रेणी है। और विशेष वालों की अलग। सबकी जगह भी अलग है। हैं सब मंदिर के प्रांगण में ही, पर थोड़ी सी दूर- दूर बने हुए हैं। जी, मंदिर का पूरा बड़ा प्रांगण इतना बड़ा है की आपको चलकर जाने में मन कतराएगा। इसके लिए प्रशासन ने एक टॉय ट्रेन की व्यवस्था की है, जिसके माध्यम से कोई भी कहीं भी आ-जा सकता है। यह बिलकुल फ्री है। यह जान कर तो हमे मज़ा ही आ गया। 




इस ट्रेन के माध्यम से हमने पूरे मंदिर के परिसर का भ्रमण किया। यह ट्रेन कई 'स्टेशंस' पे से हो कर गुजरती है। जैसे मुख्य मंदिर, प्रवेश द्वार, विभिन्न गेस्ट हाउस। इस से भ्रमण करने पे हमने दो तालाब देखे। एक में बत्तख और दुसरे में कमल के मुस्कुराते फूले मिले। ट्रेन पाम के पौधों को भी कई हपोल पत्तियों के बीच ने होकर हमे ले जाती है। यह अनुभव करने योग्य है। हमे यह इतना भाया की हमने दूसरी बार फिर सवारी की।       





बता दें की पर अगर आप जैन नहीं हैं तब यहाँ रुकने का प्रावधान आपके लिए नहीं है। पर ट्रेन की सवारी सबके लिए है। मुझ ऐसा महसूस होता है की यह जगह जैनियों के लिए एक रिट्रीट जैसा है। उनके मंदिर दर्शन से लेकर बेहतरीन रुकने की व्यवस्था, बीसों तरह के स्वादिष्ट व्यंजन और बाहर घूमने - विचरने लिए बढ़िया बनाया हुआ है। 



देर शाम यह अनुभूति और बढ़ जाती है क्यूंकि रौशनी अपना जादू बिखेरने लगती है। इसका अनुभव वे बता पाएंगे जो वहां ठहरे हैं। हमने लौटना था आनंद सो हम दिन में ही रवाना हो गये थे। इसकी खूबसूरती के लिए यहाँ कहा जाता है - जिसने देखा, वही इसका आनंद ले सकता है।



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