Longing for a Break from the Everyday Monotony?

(Break) अवकाश
कुछ चुनिन्दा लोगों को छोड़ दें तो ज़्यादातर लोग हमेशा अवकाश ही गिनते रहते हैं। अवकाश यानि मनोरंजन। ठीक भी है की वह पूरा समय सिर्फ काम ही तो करते नही रह सकते। बिलकुल समय चाहिए, वो बीच का समय जब हम बिना काम के हों। मनोरंजन से बेशक बोरियत में कमी आती है पर क्या मन को फिर से तरोताज़ा होने की पूरी खुराक मिलती है? ज़रूर महसूस किया होगा अपने की कई बार हम मनोरंजन से भी थक जाते हैं। तो फिर ऐसा क्या करें जिस से सौ प्रतिशत ताज़गी आये?
सृजन के बारे में क्या ख़याल है? कभी यूँ ही मनन – चिंतन कर लिया जाये तो? ज़िंदगी के उन जटिल प्रश्नों से जवाब खंगाले जाएं। अपने स्वभाव का आंकलन करना। किसी गलत काम के लिए प्रायश्चित। शुक्रगुज़ारी। आने वाले समय के लिए कुछ नए संकल्प।
अवकाश का एक अर्थ आकाश भी है। अवकाश की ही तरह आकाश भी एक खाली जगह ही है। अवकाश मानव को चाहिए और आकाश प्रकृति का हिस्सा है। और यही फर्क है दोनों के बीच – मानव और प्रकृति का। अब जरा गौर कीजियेगा, प्रकृति कभी अवकाश नहीं लेती। ना सूरज, ना ‘उर्वी’, ना ही वनस्पतियां। संसार निरंतर चलता ही रहता है। और हम मानव भी तो इसी प्रकृति की न केवल एक रचना मात्र हैं बल्कि श्रेष्ठ रचनाओं में से एक हैं। हमारा शरीर भी बिना अवकाश मांगे सदैव चलता रहता है। अगर यह कभी अवकाश मांग ले तो? फिर केवल हमे ही अवकाश क्यों चाहिए?
क्या हम अब ज़रा जल्दी ही थकने लगे हैं ? या जीवन को ज़्यादा से ज़्यादा ही भोगने की लालसा मन में बढ़ती जा रही है। सप्ताह के दो दिन छुट्टी के भी हमे कम पड़ने लगे हैं। अच्छा, उस छुट्टी के दिन भी ना हमारा मन छुट्टी पे रहता है, ना शरीर, ना ही बुद्धि। यूँ स्वस्थ शरीर को ज़्यादा अवकाश की ज़रुरत भी नहीं पड़ती। जो ज़्यादा शारीरिक मेहनत करते हैं, उन्हें भी नहीं।
अवकाश चाहिए ‘बुद्धिजीवी’ को। अब जीवन शैली ही बुद्धि पे ही आश्रित होकर रह जो गयी है, या हमने वैसी स्थिति बना ली है, जो भी कह लें। हम मन के हिस्से के काम भी अब बुद्धि को देने लगे हैं। बुद्धि पर बोझ बढ़ता ही जा रहा है। और ये इसी ‘विलक्षण’ बुद्धि का नतीजा है की हमारा जीवन एक व्यापारिक गतिविधि बनकर रह गया है। नफा – नुकसान एक मंत्र बन गया है।
आत्मीयता, स्नेह, प्यार -दुलार, दया आदि भाव – भावनाओं के लिए ‘व्यस्त’ के पास ‘अवकाश’ नहीं! जब यह सभी मूल्य थे तब थकान आती थी और चली जाती थी… पता ना चलता था कभी। अब रिश्ते मतलब की नीव पर टिके हैं। घर परिवार के साथ हास – परिहास नहीं होता। नीरसता सी आगयी या हम ले आये। शहरी और ‘शिक्षित’ व्यक्ति पर इसकी ज़्यादा मार पड़ी है। वह लादी हुई अपेक्षाओं और खुद की महत्वकाँक्षाओं से दबा हुआ है। और यह वजन वह हर रोज़ लादे फिरता है। संकुचित सा होगया है, खुद में सिमटने लगा है। परिस्थितियां कुछ अनुरूप न रहे तो उसका सर फटने लगता है, बौखला सा जाता है। बस वहीं अवकाश की ज़रुरत महसूस होती है।
जिस ऊर्जा की तलाश हम अवकाश में करते हैं वह दरअसल उन मानवीय मूल्यों में है, वही आत्मीयता, स्नेह, प्यार … । और हम इसके स्त्रोत ही बंद करते जा रहे हैं। सुस्ताने के सहारे जो ऊर्जा मिलती है उसी को बचा – बचा कर हमने जीने का तरीका बना लिया है।
फिर बुद्धि की भी कोई सीमा है बोझ धोने की। कहीं किसी जानकारी से वंचित न रह जाए इस के चक्कर में सूचनाओं का अम्बार लगा लिया है हमने। और सबसे बेहतर पाने की लालसा मानो थमने का नाम ही नही लेती। हमे ‘और’ चाहिए या ‘उस’ से ज़्यादा। सच कहूं तो इसी को हमने बेंचमार्क बना लिया है जिसे हम पाना चाहते हैं और वो भी अति शीघ्र। बौद्धिक क्षमताएं बढ़ाने में रूची कम ही रह गयी है। चिंता और तनाव अब मित्र हैं हमारे, हमेशा साथ! शायद इसलिए ही मानव को प्रकृति का अंग होने का बाद भी अवकाश चाहिए।
तो क्या ख्याल है? किस तरह का अवकाश चाहिए आपको? वह जो दो दिन का मिलता है सप्ताह के अंत में या फिर वह जो आप हमेशा महसूस कर सकते हैं अपनी जिंदगी जीने के अंदाज़ में ज़रा बदलाव लाकर। आपकी थकान मिटा कर तरोताज़ा बना देने वाली बारिश वहीं है आपके बेहद नज़दीक।